________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति [ 653 91. एएसि वण्णओ चेव गन्धओ रस-फासओ। ___ संठाणादेसमो वावि विहाणाई सहस्ससो॥ [1] इन अप्कायिकों के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से हजारों भेद होते हैं। विवेचन–अप्काय—जिनका अप् यानी जल ही काय--शरीर है, वे अप्काय या अप्कायिक कहलाते हैं / अप्काय के आश्रित छोटे-छोटे अन्य जीव सूक्ष्म दर्शकयंत्र से देखे जा सकते हैं। किन्तु अपकाय के जीव अनुमान आगम आदि प्रमाणों से सिद्ध हैं 1 अप्काय के मुख्य दो भेद—सूक्ष्म और बादर / पुनः दोनों के दो-दो भेद-पर्याप्त और अपर्याप्त / बादर पर्याप्त अप्काय के शुद्धोदक आदि 5 भेद हैं / भेदों में अन्तर-उत्तराध्ययन में बादर पर्याप्त अप्काय के 5 भेद बतलाए गए हैं, जबकि प्रज्ञापना में इसी के अवश्याय से लेकर रसोदक तक 17 भेद बताए हैं। यह अन्तर सिर्फ विवक्षाभेद वनस्पतिकाय-निरूपण 92. दुविहा वणस्सईजीवा सुहुमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो // [12] वनस्पतिकायिक जीवों के दो भेद हैं—सूक्ष्म और बादर / दोनों के पुनः पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो-दो भेद हैं। 93. बायरा जे उ पज्जत्ता दुविहा ते वियाहिया। साहारणसरीरा य पत्तेगा य तहेव य॥ [33] जो बादर पर्याप्त बनस्पतिकाय-जीव हैं, वे दो प्रकार के बताए गए हैं-साधारणशरीर और प्रत्येकशरीर। 94. पत्तेगसरीरा उ गहा ते पकित्तिया। रुक्खा गुच्छा य गुम्मा य लया वल्ली तणा तहा // [14] प्रत्येकशरीर वनस्पतिकाय अनेक प्रकार के कहे गए हैं (यथा-) वृक्ष, गुच्छ (बैंगन आदि), गुल्म (नवमालिका आदि), लता (चम्पकलता आदि), वल्ली (भूमि पर फैलने वाली ककड़ी आदि की बेल) और तृण (दूब आदि)। 95. लयावलय पव्वगा कुहुणा जलरुहा ओसही-तिणा। हरियकाया य बोद्धन्वा पत्तेया इति प्राहिया // [5] लता-वलय (केला ग्रादि), पर्वज (ईख आदि), कुहण (भूमिस्फोट, कुक्कुरमुत्ता आदि), जलरुह (कमल आदि), प्रोषधि (जौ, चना, गेहूँ आदि धान्य), तृण और हरितकाय (सभी प्रकार की हरी बनस्पति), ये सभी प्रत्येकशरीरी कहे गए हैं, ऐसा जानना चाहिए। 1. (क) प्रज्ञापना पद 1 वृत्ति, (ख) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. 2, पत्र 347 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org