________________ 652] [उत्तराध्ययनसूत्र अप्काय-निरूपरण 84. दुविहा पाउजीवा उ सुहुमा बायरा तहा / पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो // [84] अप्काय के जीवों के दो भेद हैं—सूक्ष्म तथा बादर / पुनः दोनों के दो-दो भेद हैंपर्याप्त और अपर्याप्त / 85. बायरा जे उ पज्जत्ता पंचहा ते पकित्तिया। सुद्धोदए य उस्से हरतणू महिया हिमे // [85] जो बादर-पर्याप्त अप्काय के जीव हैं, वे पांच प्रकार के कहे गए हैं—(१) शुद्धोदक, (2) प्रोस (अवश्याय) (3) हरतनु (गीली भूमि से निकला वह जल जो प्रातःकाल तृणाग्र पर बिन्दुरूप में दिखाई देता है / ), (4) महिका-(कुहासा ---धुम्मस) और (5) हिम (बर्फ)। 86. एगविहमणाणत्ता सुहुमा तत्थ वियाहिया। सुहमा सबलोगम्मि लोगदेसे य बायरा // [86] उनमें से सूक्ष्म अप्काय के जोव एक ही प्रकार के हैं, उनके नाना भेद नहीं है / सूक्ष्म अप्काय के जीव समग्र लोक में और बादर अप्कायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं / 87. सन्तइं पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य / ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य॥ __ [87] अप्कायिक जीव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। 88. सत्तेव सहस्साइं वासाणुक्कोसिया भवे / ___आउट्ठिई आऊणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया // [8] अप्कायिक जीवों की आयु-स्थिति उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त 89. असंखकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहनिया / ___ कायट्टिई पाऊणं तं कायं तु अमुचओ // [86] अप्कायिक जीवों की कायस्थिति उत्कृष्ट असंख्यात काल (असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी) की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। अप्काय को नहीं छोड़ कर लगातार अप्काय में ही उत्पन्न होना, कायस्थिति है / 90. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं / विजढंमि सए काए पाऊजीवाण अन्तरं // [10] अप्काय को छोड़ कर पुन: अप्काय में उत्पन्न होने का अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org