________________ [उत्तराध्ययनसूत्र [53] (एक समय में) उत्कृष्ट अवगाहना में दो, जघन्य अवगाहना में चार और मध्यम अवगाहना में एक सौ पाठ जीव सिद्ध हो सकते हैं / 54. चउरुड्ढलोए य दुवे समुद्दे तो जले वीसमहे तहेव / सयं च अठ्ठत्तर तिरियलोए समएणेगेण उ सिज्झई उ // ___ [54] एक समय में ऊर्ध्वलोक में चार, समुद्र में दो, जलाशय में तीन, अधोलोक में बीस एवं तिर्यक् लोक में एक सौ पाठ जीव सिद्ध हो सकते हैं। 55. कहि पडिहया सिद्धा? कहि सिद्धा पइट्ठिया? / ___कहिं बोन्दि चइत्ताणं ? कत्थ गन्तूण सिज्झई ? // [55] [प्र.] सिद्ध कहाँ रुकते हैं ? कहाँ प्रतिष्ठित होते हैं ? शरीर को कहाँ छोड़कर कहाँ जा कर सिद्ध होते हैं ? 56. अलोए पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पइट्ठिया / इहं बोन्दि चइत्ताणं तत्थ गन्तूण सिज्झई // [56] [उ.] सिद्ध अलोक में रुक जाते हैं / लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हैं। मनुष्यलोक में शरीर को त्याग कर, लोक के अग्रभाग में जा कर सिद्ध होते हैं / 57. बारसहिं जोयणेहि सव्वदुस्सुरिं भवे / ईसीपम्भारनामा उ पुढवी छत्तसंठिया // 58. पणयालसयसहस्सा जोयणाणं तु आयया / तावइयं चेव वित्थिण्णा तिगुणो तस्सेव परिरओ। 59. अट्ठजोयणबाहल्ला सा मज्झम्मि वियाहिया। - परिहायन्ती चरिमन्ते मच्छियपत्ता तणुयरी॥ [57-58-59] सर्वार्थसिद्ध विमान से बारह योजन ऊपर ईषत्-प्राग्भारा नामक पृथ्वी है; वह छत्राकार है। उसकी लम्बाई पैंतालीस लाख योजन की है, चौड़ाई भी उतनी ही है। उसकी परिधि उससे तिगुनी (अर्थात् 1,42,30,246 योजन) है। मध्य में वह पाठ योजन स्थूल (मोटी) है। फिर क्रमशः पतलो होती-होती अन्तिम भाग में मक्खी के पंख से भी अधिक पतली हो जाती है। 60. अज्जुणसुवण्णगमई सा पुढवी निम्मला सहावेणं / उत्ताणगछत्तगसंठिया य भणिया जिणवरेहिं // [60] जिनवरों ने कहा है-वह पृथ्वी अर्जुन-(अर्थात्-) श्वेतस्वर्णमयी है, स्वभाव से निर्मल है और उत्तान (उलटे) छत्र के आकार की है। 61. संखंक-कुन्दसंकासा पण्डरा निम्मला सुहा। __ सीयाए जोयणे तत्तो लोयन्तो उ वियाहियो / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org