________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति [643 इन लक्षणों में शब्दभेद होने पर भी वस्तुभेद नहीं है। ये संसारस्थ जीव की मुख्यता से कहे गए हैं यद्यपि जीवों में सिद्ध भगवान् (मुक्त जीव) भी सम्मिलित हैं किन्तु सिद्धों में शरीर और दस प्राण नहीं हैं / तथापि भूतपूर्व गति न्याय से सिद्धों में जीवत्व कहना औपचारिक है। दूसरी तरह से---सिद्धों में ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य, ये 4 भावप्राण होने से उनमें भी जीवत्व घटित होता है।' संसारस्थ और मुक्त सिद्ध : स्वरूप-जो प्राणी चतुर्गतिरूप या कर्मों के कारण जन्म-मरणरूप संसार में स्थित हैं, वे संसारी या संसारस्थ कहलाते हैं। जिनमें जन्म-मरण, कर्म, कर्मबीज (रागद्वेष), कर्मफलस्वरूप चार गति, शरीर आदि नहीं होते, मुक्त होकर सिद्ध गति में विराजते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं। सिद्धजीव-निरूपण 46. इत्थी पुरिससिद्धा य तहेव य नपुंसगा। सलिंगे अन्नलिंगे य गिहिलिगे तहेव य // [46 ) कोई स्त्रीलिंगसिद्ध होते हैं, कोई पुरुषलिंगसिद्ध, कोई नपुंसकलिंगसिद्ध और कोई स्वलिंगसिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध तथा गृहस्थलिंगसिद्ध होते हैं / 50. उक्कोसोगाहणाए य जहन्नमज्झिमाइ य / उड्ढे अहे य तिरियं च समुद्दम्मि जलम्मि य / / [50] उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम अवगाहना में तथा ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में अथवा तिर्यक्लोक में, एवं समुद्र अथवा अन्य जलाशय में (जीव सिद्ध होते हैं / ) 51. दस चेव नपुंसेसु वीसं इत्थियासु य / पुरिसेसु य अट्ठसयं समएणेगेण सिज्झई / / [51] एक समय में (अधिक से अधिक) नपुंसकों में से दस, स्त्रियों में से बीस और पुरुषों में से एक सौ आठ जीव सिद्ध होते हैं। 52. चत्तारि य गिहिलिगे अन्नलिंगे दसेव य / सलिगेण य अट्ठसयं समएणेगेण सिज्झई / / [52] एक समय में चार गृहस्थलिंग से, दस अन्यलिंग से तथा एक सौ पाठ जीव स्वलिंग से सिद्ध हो सकते हैं। 53. उक्कोसोगाहणाए य सिज्झन्ते जुगवं दुबे / चत्तारि जहन्नाए जवमज्झठुत्तरं सयं // 1. तथा मति सिद्धानामपि जीवत्वं सिद्ध जीवितपूर्वत्वात् / सम्प्रति न जीवन्ति सिद्धा, भूतपूर्वगत्या जीवत्वमेषामौपचारिक, मुख्यं चेष्यते ? नैष दोषः, भावप्राणज्ञानदर्शनानुभवनात् साम्प्रतिकमपि जीवत्वमस्ति / -राजवातिक 1147 2. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 339 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org