________________ 642] [उत्तराध्ययनसून चूड़ी की तरह लम्बगोल, (2) वृत्त-गेंद की तरह गोल, (3) व्यत्र--त्रिकोण, (4) चतुरस्रचतुष्कोण और (5) आयत-बांस या रस्सी की तरह लम्बा / ' पंचविध परिणाम की दृष्टि से समग्र भंग-वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान इन्द्रियग्राह्य भाव हैं / भाव का अर्थ यहाँ पर्याय है / पुद्गल द्रव्य रूपी होने से उसके इन्द्रियग्राह्य स्थूल पर्याय होते हैं, जबकि अरूपी द्रव्य के इन्द्रियग्राह्य स्थूल पर्याय (भाव) नहीं होते। जैन दर्शन में वर्ण पांच, गन्ध दो, रस पांच, स्पर्श आठ और संस्थान पांच प्रसिद्ध हैं। इन्हीं के विभिन्न पर्यायों के कुल 482 भंग होते हैं ! वे इस प्रकार हैं-कृष्णादि वर्ण गन्ध आदि से भाज्य होते हैं, तब कृष्णादि प्रत्येक पांच वर्ण 20 भेदों से गुणित होने पर वर्ण पर्याय के कुल 100 भंग हुए / इसी प्रकार सुगन्ध के 23 और दुर्गन्ध के 23, दोनों के मिल कर गन्ध पर्याय के 46 भंग होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक रस के बीस-बीस भेद मिला कर रसपंचक के संयोगी भंग 100 हुए। मृदु आदि प्रत्येक स्पर्श के 17-17 भेद मिला कर आठ स्पर्श के 136 भंग होते हैं। प्रत्येक संस्थान के 20-20 भेद मिला कर संस्थानपंचक के 100 संयोगी भंग होते हैं। इस प्रकार कल 100+46+100+136+100 =482 भंग हए भंग स्थूल दृष्टि से गिने गए हैं / वास्तव में सिद्धान्ततः देखा जाए तो तारतम्य की दृष्टि से प्रत्येक के अनन्त भंग होते हैं। ए। ये सब जीवनिरूपण 48. संसारत्था य सिद्धा य दुविहा जीवा वियाहिया / सिद्धाऽणेगविहा वुत्ता तं मे कित्तयो सुण // {48] जीव के (मूलतः) दो भेद कहे गए हैं -संसारस्थ और सिद्ध / सिद्ध अनेक प्रकार के हैं / (पहले) उनका वर्णन करता हूँ, उसे तुम सुनो। विवेचन-जीव के लक्षण-(१) जो जीता है,-प्राण धारण करता है, वह जीव है, (2) जो चैतन्यवान् आत्मा है, वह जीव है, वह उपयोगलक्षित, प्रभु, कर्त्ता, भोक्ता, देहप्रमाण, अमूर्त और कर्मसंयुक्त है। (3) जो दस प्राणों में से अपनी पर्यायानुसार गृहीत यथायोग्य प्राणों द्वारा जीता है, जीया था, व जीएगा, इस त्रैकालिक जीवन गुण वाले को 'जीव' कहते हैं। (4) जीव का लक्षण चेतना या उपयोग है / 1. उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, पत्र 337 2. (क) उत्तरा, गुजराती भाषान्तर, पत्र 338 (ख) उसरा. (साध्वी चन्दना) प्र. 477 3. (क) जोवति-प्राणान् धारयतीति जीवः / (ख) जीवोत्ति हवदि चेदा, उवयोग-विसेसिदो पहू कत्ता / भोत्ता य देहमेत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो। -पंचास्तिकाय गा. 27 (ग) पाणेहि चदुहिं जीवदि जीवस्सदि, जो हि जीविदो पुव्वं ! सो जीवो....। -प्रवचनसार 146 (घ) 'तन चेतनालक्षणो जीवः / ' सर्वार्थसिद्धि 1 / 4 / 14 (ङ) 'उपयोगो लक्षणम् / ' --तत्त्वार्थ. 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org