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________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] [641 विवेचन-पुद्गल (रूपी अजीव) का लक्षण-तत्त्वार्थ राजवातिक आदि के अनुसार पुदगल में 4 लक्षण पाए जाते हैं-(१) भेद और संघात के अनसार जो पुरण और गलन को प्राप्त हों, (2) पुरुष (-जीव) जिनको आहार, शरीर, विषय और इन्द्रिय-उपकरण आदि के रूप में निगले, अर्थात्-ग्रहण करें, (3) जो गलन-पूरण-स्वभाव सहित हैं, वे पुद्गल हैं / गुणों की अपेक्षा से-(४) स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले जो हों वे पुद्गल होते हैं। पुद्गल के ये जो असाधारण धर्म (गुणात्मक लक्षण) हैं, इनमें संस्थान भी एक है।' पुद्गल के भेद-पुद्गल के मूल दो भेद हैं-- अणु (परमाणु) और स्कन्ध / स्कन्ध की अपेक्षा से देश और प्रदेश ये दो भेद और होते हैं / मूल पुद्गलद्रव्य परमाणु ही हैं / उसका दूसरा भाग नहीं होता, अतः वह निरंश होता है। दो परमाणुओं से मिल कर एकत्व-परिणतिरूप द्विप्रदेशी स्कन्ध बनता है। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी आदि से लेकर अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्ध तक होते हैं। पुद्गल के अनन्तस्कन्ध हैं / परमाणु जब स्कन्ध से जुड़ा रहता है. तब उसे प्रदेश कहते हैं और जब वह स्कन्ध से पृथक (अलग) रहता है, तब परमाणु कहलाता है / यह 10 वी, 11 वी गाथा का आशय है।* __ स्कन्धादि पुद्गल : द्रव्यादि की अपेक्षा से-स्कन्धादि द्रव्य को अपेक्षा से पूर्वोक्त 4 प्रकार के हैं / क्षेत्र को अपेक्षा से—लोक के एक देश से लेकर सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं, काल की अपेक्षा से-- प्रवाह को लेकर अनादि-अनन्त और प्रतिनियत क्षेत्रावस्थान की दष्टि से सादि-सान्त, स्थिति (पदगल द्रव्य की संस्थिति)--जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः असंख्यात काल के बाद स्कन्ध आदि रूप से रहे हुए पुद्गल की संस्थिति में परिवर्तन हो जाता है। स्कन्ध बिखर जाता है, तथा परमाणु भी स्कन्ध में संलग्न होकर प्रदेश का रूप ले लेता है। अन्तर (पहले के अवगाहित क्षेत्र को छोड़ कर पुनः उसी विवक्षित क्षेत्र की अवस्थिति को प्राप्त होने में होने वाला व्यवधान (अन्तर) काल की अपेक्षा मे-जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट अनन्त काल का पड़ता है / परिणाम की अपेक्षा से-वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से स्कन्ध आदि का परिणमन 5 प्रकार का है। संस्थान : प्रकार और उनका स्वरूप-संस्थान प्राकृति को कहते हैं। उसके दो रूप हैंइत्थंस्थ और अनित्थंस्थ / जिसका परिमण्डल आदि कोई नियत संस्थान हो, वह इत्थंस्थ और जिसका कोई नियत संस्थान न हो, वह अनित्थंस्थ कहलाता है। इत्थंस्थ के 5 प्रकार-(१) परिमण्डल 1. (क) भेदसंघाताभ्यां पूर्यन्ते गलन्ते चेति पूरणगलनात्मिकां क्रियामन्तर्भाव्यः पुद्गलशब्दोऽन्वर्थः / (ख) पुमांसो जीवाः, तैः शरीराऽहारविषयकरणोपकरणादिभावेन गिल्यन्ते इति पुद्गलाः / -राजवातिक शश२४-२६ (ग) गलनपूरणस्वभावसनाथः पुद्गलः। -द्रव्यसंग्रहटीका 15 // 50 // 12 (घ) 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गला।' –तत्त्वार्थ. 5 / 23 2. (क) 'अणवः स्कन्धान / ' तत्त्वार्थ. 5 / 25 (ख) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) पृ. 476-477 3. (क) उत्तरा. (साध्वो चन्दना) पृ. 477 (ख) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) पत्र 335-336 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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