________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] [645 [61] वह शंख, अंक रत्न और कुन्दपुष्प के समान श्वेत है, निर्मल और शुभ है / इस सीता नाम की ईषत्-प्राग्भारा पृथ्वी से एक योजन ऊपर लोक का अन्त कहा गया है / 62. जोयणस्स उ जो तस्स कोसो उवरिमो भवे / तस्स कोसस्स छब्भाए सिद्धाणोगाहणा भवे // [62] उस योजन के ऊपर का जो कोस है; उस, कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना (अवस्थिति) होती है / (अर्थात्-३३३ धनुष्य 32 अंगुल प्रमाण सिद्धस्थान है / ) 63. तत्थ सिद्धा महाभागा लोयग्गम्मि पइट्ठिया। भवप्पवंचउम्मुक्का सिद्धि वरगई गया / [63] भवप्रपंच से मुक्त, महाभाग एवं परमगति-सिद्धि' को प्राप्त सिद्ध वहाँ-लोक के अग्रभाग (उक्त कोस के छठे भाग) में विराजमान हैं / 64. उस्सेहो जस्स जो होइ भवम्मि चरिमम्मि उ। तिभागहीणा तत्तो य सिद्धाणोगाहणा भवे // [64] अन्तिम भव में जिसकी जितनी ऊँचाई होती है उससे त्रिभाग-न्यून सिद्धों की अवगाहना होती है / (अर्थात्-शरीर के अवयवों के अन्तराल की पूर्ति करने में तीसरा भाग न्यून होने से 3 भाग की अवगाहना रह जाती है / ) 65. एगत्तेण साईया अपज्जवसिया वि य। पुहुत्तेण अणाईया अपज्जवसिया वि य / / [65] एक (मुक्त जीव) की अपेक्षा से सिद्ध सादि-अनन्त है और बहुत-से (मुक्त जीवों) की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त हैं। 66. अरूविणो जीवघणा नाणदंसणसन्निया। अउलं सुहं संपत्ता उवमा जस्स नस्थि उ॥ [64] वे अरूपी हैं, जीवधन (सधन) हैं, ज्ञानदर्शन से सम्पन्न हैं / जिसकी कोई उपमा नहीं है, ऐसा अतुल सुख उन्हें प्राप्त है / 67. लोएगदेसे ते सव्वे नाणदंसणसन्निया। संसारपारनिस्थिन्ना सिद्धि वरगई गया। [67] ज्ञान और दर्शन से युक्त, संसार के पार पहुँचे हुए. सिद्धि नामक श्रेष्ठगति को प्राप्त वे सभी सिद्ध लोक के एक देश में स्थित हैं। विवेचन--सिद्ध-गाथा 46 से 67 तक में सिद्ध जीवों के प्रकार, एक समय में सिद्धत्वप्राप्ति योग्य जीवों की गणना, तथा वे कब और कैसे सिद्धत्व प्राप्त करते हैं ? कहाँ रहते हैं ? वह भूमि कैसी है ? इत्यादि तथ्यों का निरूपण किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org