________________ छत्तीसवां अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] [635 6. आगासे तस्स देसे य तप्पएसे य आहिए। प्रद्धासमए चेव अरूवी दसहा भवे / / [6] आकाशास्तिकाय, उसका देश तथा प्रदेश कहा गया है / और एक अद्धासमए (काल), ये दस भेद अरूपी अजीव के हैं। 7. धम्माधम्मे य दोऽवेए लोगमित्ता वियाहिया। लोगालोगे य आगासे समए समयखेत्तिए / [7] धर्म और अधर्म, ये दोनों लोक प्रमाण कहे गए हैं। प्राकाश लोक और अलोक में व्याप्त है। काल समय क्षेत्र (मनुष्य-क्षेत्र) में ही है। 8. धम्माधम्मागासा तिन्नि वि एए प्रणाइया / ___ अपज्जवसिया चेव सम्बद्ध तु वियाहिया / / [8] धर्म, अधर्म और आकाश, ये तीनों द्रव्य अनादि, अपर्यवसित-अनन्त और सर्वकालस्थायी (नित्य) कहे गए हैं। 9. समए वि सन्तइं पप्प एवमेवं वियाहिए। पाएसं पप्प साईए सपज्जवसिए वि य // [6] काल भी प्रवाह (सन्तति) को अपेक्षा से इसी प्रकार (अनादि-अनन्त) है / प्रादेश से (-प्रतिनियत व्यक्तिरूप एक-एक समय की अपेक्षा से) सादि और सान्त है / विवेचन—यद्यपि धर्मास्तिकाय आदि तीन अरूपो अजोव वास्तव में अखण्ड एक-एक द्रव्य हैं, तथापि उनके स्कन्ध, देश और प्रदेश के रूप में तीन-तीन भेद किये गए हैं / परमाणु, स्कन्ध, देश और प्रदेश : परिभाषा-पुद्गल के सबसे सूक्ष्म (छोटे) भाग को, जिसके फिर दो टुकड़े न हो सकें, 'परमाणु' कहते हैं। परमाण सूक्ष्म होता है और किसी एक वर्ण, गन्ध, रस तथा दो स्पर्शों से युक्त होता है। वे ही परमाणु जब एकत्र हो जाते हैं, तब 'स्कन्ध' कहलाते हैं / दो परमाणुओं से बनने वाले स्कन्ध को द्विप्रदेशी स्कन्ध कहते हैं। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, दशप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। अनेक प्रदेशों में परिकल्पित, स्कन्धगत छोटे-बड़े नाना अंश 'देश' कहलाते हैं। जब तक वे स्कन्ध से संलग्न रहते हैं. तब तक 'देश' कहलाते हैं। अलग हो जाने के बाद वह स्वयं स्वतन्त्र स्कन्ध बन जाता है / स्कन्ध के उस छोटे-से छोटे अविभागी विभाग (अर्थात् -फिर भाग होने की कल्पना से रहित सर्वाधिक सूक्ष्म अंश) को प्रदेश कहते हैं। प्रदेश तब तक ही प्रदेश कहलाता है, जब तक वह स्कन्ध के साथ जुड़ा रहता है। अलग हो जाने के बाद वह 'परमाणु' कहलाता है। धर्मास्तिकाय आदि चार प्रस्तिकाय--धर्म, अधर्म आदि चार अस्तिकायों के स्कन्ध, देश तथा प्रदेश---ये तीन-तीन भेद होते हैं। केवल पुद्गलास्तिकाय के ही स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु ये चार भेद होते हैं। धर्म, अधर्म और प्राकाश स्कन्धतः एक हैं। उनके देश और प्रदेश असंख्य हैं / असंख्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org