________________ [उत्तराध्ययनसून के असंख्य भेद होते हैं। लोकाकाश के असंख्य और अलोका काश के अनन्त प्रदेश होने से आकाश के कुल अनन्त प्रदेश हैं। धर्मास्तिकाय आदि के स्वरूप की चर्चा पहले की जा चुकी है। अद्धासमय : कालवाचक-काल शब्द वर्ण, प्रमाण, समय, मरण आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। अतः समयवाची काल शब्द का वर्ण-प्रमाणादि वाचक काल शब्द से पृथक बोध कराने के लिए, उसके साथ, 'श्रद्धा' विशेषण जोड़ा गया है / अद्धाविशेषण से वह 'वर्तनालक्षण' काल द्रव्य का ही बोध कराता है। काल का सूर्य की गति से सम्बन्ध रहता है। अत: दिन, रात. मास, पक्ष आदि के रूप में अद्धाकाल अढाई द्वीप प्रमाण मनुष्यक्षेत्र में ही है, अन्यत्र नहीं। काल में देश-प्रदेश परिकल्पना सम्भव नहीं है; क्योंकि निश्चय दृष्टि से वह समय रूप होने से निविभाग है। अतः उसे स्कन्ध और अस्तिकाय भी नहीं माना है। अपरापरोत्पत्तिरूप प्रवाहात्मक संतति की अपेक्षा से काल आदिअनन्त है, किन्तु दिन-रात आदि प्रतिनियत व्यक्ति स्वरूप (विभाग) की अपेक्षा से सादि-सान्त है।' समयक्षेत्र का अर्थ-समयक्षेत्र का दूसरा नाम मनुष्यक्षेत्र है; क्योंकि मनुष्य केवल समयक्षेत्र में ही पाए जाते हैं। क्षेत्र की दृष्टि से समयक्षेत्र जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और अर्धपुष्कर, इन ढाई द्वीपों तक ही सीमित है / इस कारण इन अढाई द्वीपों की संज्ञा ही समयक्षेत्र है / रूपी अजीव निरूपरण 10. खन्धा य खन्धदेसा य तप्पएसा तहेव य / परमाणुणो य बोद्धव्या रूविणो य चाउम्विहा / / [10] रूपी अजीव दव्य चार प्रकार का है-स्कन्ध, स्कन्ध-देश, स्कन्ध-प्रदेश और परमाणु / 11. एगत्तेण पुहत्तेण खन्धा य परमाणुणो। लोएगदेसे लोए य भइयव्वा ते उ खेत्तप्रो॥ इत्तो कालविभागं तु तेसि वुच्छं चउन्विहं / / [11] परमाणु एकत्वरूप होने से अर्थात् अनेक परमाणु एक रूप में परिणत होकर स्कन्ध बन जाते हैं, और स्कन्ध पृथक् रूप होने से परमाणु बन जाते हैं। (यह द्रव्य की अपेक्षा से है / ) क्षेत्र को अपेक्षा से वे (स्कन्ध और परमाणु) लोक के एक देश में तथा (एक देश से लेकर) सम्पूर्ण लोक में भाज्य (-असंख्य विकल्पात्मक) हैं। यहाँ से आगे उनके (स्कन्ध और परमाणु के) काल की अपेक्षा रो चार प्रकार का विभाग कहूँगा। 12. संतई पप्प तेऽणाई अपज्जवसिया वि य / ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य / / 1. (क) बृहद्वृत्ति, अ. रा, कोष भा. 1, पृ. 204 (ख) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) पृ. 476 (ग) प्रज्ञापना पद 5 वृत्ति (घ) स्थानांग स्था. 4.11264 वनि, पत्र 190 2. (क) प्रज्ञापना पद 1 वृत्ति, अ. रा. कोष भा. 1 पृ. 206 (ख) स्थानांग स्था, 4 / 1 / 264 वृत्ति, पत्र 190 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org