________________ [उत्तराध्ययनसूत्र एक जीव/ग्रजीव द्रव्य-नाम द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतः अजीव धर्मास्तिकाय एक लोकव्यापी अनादि-अनन्त अरूपी अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय लोक-अलोकव्यापी काल अनन्तु समयक्षेत्रव्यापी पद्गगलास्तिकाय लोकव्यापी रूपी जीव जीवास्तिकाय अनन्त जीव-अजीव-विज्ञान का प्रयोजन-जब तक साधु जीव और अजीव तत्त्व के भेद को नहीं समझ लेता, तब तक वह संयम को नहीं समझ सकता / जीव और अजीव को जानने पर ही व्यक्ति अनेक विध गति, पुण्य, पाप, पाश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष को जान सकता है / अतः जीवाजीव विभाग को समझ लेने पर ही संयम की आराधना में साधु का प्रयत्न सफल हो सकता है / अरूपी अजीवनिरूपण 4. रूविणो चेवऽस्वी य अजीवा दुविहा भवे / प्ररूवी सहा वृत्ता रूविणो वि चउन्विहा / / [4] अजीव दो प्रकार है-रूपी और अरूपी / अरूपी दस प्रकार का है और रूपी चार प्रकार का। विवेचन-अजीव का लक्षण—जिसमें चेतना न हो, जो जीव से विपरीत स्वरूप वाला हो, उसे अजीव कहते हैं / रूपी, अरूपी-जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो, वे रूपी या मूर्त कहलाते हैं। जिसमें रूप आदि न हों वे अरूपी-अमूर्त हैं। अरूपो-अजीव-निरूपण 5. धम्मत्थिकाए तसे तप्पएसे य आहिए। ___ अहम्मे तस्स देसे य तप्पएसे य आहिए // [5] (सर्वप्रथम) धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय का देश तथा प्रदेश कहा गया है, फिर अधर्मास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश कहा गया है। 1. उत्तरा. टिप्पण (मु. नथमलजी) पृ. 315 2. (क) दशवकालिक सत्र अ. 4, भा.१२.१४ (ख) उत्तरा. प्रियदशिनी भा. 4. प. 686 * प्रज्ञापना पद 1 टीका 4. तत्र रूपं स्पर्शाद्याश्रयभूतं मर्त तदस्ति येथे ते रूपिणः। तद्व्यतिरिक्ता अरूपिणः / ---बहदवत्ति, अ. रा. कोप. भा.१, .203 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org