________________ छत्तीसइमं अज्झयणं : छत्तीसवाँ अध्ययन जोवाजीवविभत्तो : जोवाजीवविभक्ति . अध्ययन का उपक्रम और लाभ 1. जीवाजीववित्ति सुणेह मे एगमणा इओ। जं जाणिऊण समणे सम्म जयह संजमे // [1] अब जीव और अजीव के विभाग को तुम एकाग्रमना होकर मुझ से सुनो; जिसे जान कर श्रमण सम्यक् प्रकार से संयम में यत्नशील होता है। 2. जीया चेव अजोया य एस लोए वियाहिए। ___ अजीवदेसमागासे अलोए से वियाहिए / [2] यह लोक जीव और अजीवमय कहा गया है, और जहाँ अजीव का एकदेश (भाग) केवल अाकाश है उसे अलोक कहा गया है। 3. दवओ खेत्तओ चेव कालओ भावओ तहा। परवणा तेसिं भवे जीवाणमजीवाण य // 3] उन जीवों ओर अजोवों को प्ररूपणा द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से अोर भाव से होती है। - विवेचा-'लोक' की परिभाषा : विभिन्न दृष्टियों से-जैनागमों में विभिन्न दृष्टियों से 'लोक' की परिभाषा की गई है यथा--(१) धर्मास्तिकाय लोक है, (2) षड्द्रव्यात्मक लोक है, (3) 'लोक' पंचास्तिकायमय है, और (4) लोक जीव-अजोवमय है। प्रस्तुत में जोव और अजीव को 'लोक' कहा गया है, परन्तु पूर्वपरिभाषाओं के साथ इसका कोई विरोध नहीं है, केवल अपेक्षाभेद है।' ___अलोक-अलोक में धर्मास्तिकाय आदि पांच द्रव्य नहीं हैं, केवल आकाश है, जो कि अजीवमय है, इसलिए अलोक में अजीव का एक देश-आकाश का एक भाग ही है / विभिन्न अपेक्षाओं से प्ररूपणा–प्रस्तुत अध्ययन में जोव और अजीव की प्ररूपणा चार मुख्य अपेक्षाओं मे की है--(१) द्रव्यतः, (2) क्षेत्रतः, (3) कालत: और (4) भावतः / 1. उत्तरा.(गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 333 2. (क) उनरा. प्रियदर्शिनी भा. 4, पृ. 687 (ख) बृहद्वृत्ति, अ. रा. कोष भाग 4, पृ. 1562 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org