________________ 628] [उत्तराध्ययनसून जाने वाला, चारों ओर तीक्ष्ण धार वाला तथा बहुत-से प्राणियों का विनाशक है। अतः साधु अग्नि न जलाए। विवेचन–पचन-पाचन क्रिया का निषेध-साधु के लिए पचन-पाचन क्रिया का निषेध इसलिए किया गया है कि इसमें अग्निकाय के जीवों तथा जल, अनाज, (वनस्पति) लकड़ी एवं पृथ्वी के आश्रित रहे हुए अनेक जीवों का वध होता है, अग्नि भी सजीव है। उसके दूर-दूर तक फैल जाने से अग्निकाय की, तथा उसके छहों दिशावर्ती अनेक त्रस-स्थावर जीवों की प्राणहानि होती है। क्रय-विक्रय का निषेध-भिक्षा और भोजन की विधि 13. हिरणं जायरूवं च मणसा वि न पत्थए / समलेठ्ठकंचणे भिक्खू विरए कयविक्कए / [13] सोने और मिट्टी के ढेले को समान समझने वाला भिक्षु सोने और चांदी की मन से भी इच्छा न करे / वह (सभी प्रकार के) क्रय-विक्रय (खरीदने-बेचने) से विरत रहे-दूर रहे / 14. किणन्तो कइओ होइ विक्किणन्तो य वाणिओ। कयविक्कयम्मि वट्टन्तो भिक्खू न भवइ तारिसो॥ [14] वस्तु को खरीदने वाला ऋयिक (खरीददार) कहलाता है और बेचने वाला वणिक (विक्रेता) होता है / अतः जो क्रय-विक्रय में प्रवृत्त है वह भिक्षु नहीं है / 15. मिक्खियध्वं न केयव्वं भिक्खुणा भिक्खवत्तिणा। कयविक्कओ महादोसो भिक्खावत्ती सुहावहा / / [15] भिक्षाजीवी भिक्षु को भिक्षावृत्ति से ही भिक्षा करनी चाहिए, क्रय-विक्रय से नहीं / क्रय-विक्रय महान् दोष है / भिक्षावृत्ति सुखावह है। 16. समुयाणं उछमेसिज्जा जहासुत्तमणिन्दियं / लाभालामम्मि संतुळे पिण्डवायं चरे मुणी॥ [16] मुनि श्रुत (शास्त्र-विधान) के अनुसार अनिन्दित और सामुदायिक उञ्छ (अनेक घरों से थोड़े-थोड़े आहार) की गवेषणा करे। लाभ और अलाभ में सन्तुष्ट रह कर पिण्डपात (-भिक्षाचर्या) करे। 17. अलोले न रसे गिद्ध जिल्भादन्ते अमुच्छिए। न रसट्ठाए भुजिज्जा जवणट्ठाए महामुणी // [17] रसनेन्द्रियविजेता अलोलुप एवं अमूच्छित महामुनि रस में आसक्त न हो। वह यापनार्थ अर्थात् जीवन-निर्वाह के लिए ही खाए, रस (स्वाद) के लिए नहीं। विवेचन–पाहार-पानी की विधि : उपयुक्त-अनुपयुक्त-भिक्षाजीवी साधु के लिए अनेक घरों से मधुकरीवृत्ति से भिक्षाचरी द्वारा निर्दोष भिक्षा ग्रहण करने तथा यथालाभ संतुष्ट, अलोलुप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org