________________ पैतीसवां अध्ययन : अनगारमार्गगति] [ 627 [6] त्रस और स्थावर, सूक्ष्म पोर बादर (स्थूल) जीवों का वध होता है, इसलिए संयत मुनि गृहकर्म के समारम्भ का परित्याग करे / विवेचन-अनगार के निवास के लिए अनुपयुक्त स्थान ये हैं---(१) मनोहर तथा चित्रों से युक्त, (2) माला और धूप से सुगन्धित (3) कपाटों वाले तथा (4) श्वेत चन्दोवा से युक्त स्थान, (5) कामरागविवर्द्धक / योग्यस्थान हैं-(१) श्मशान, (2) शून्य गृह, (3) वृक्षतल, (4) परनिर्मित गृह आदि जो विविक्त एवं रिक्त हो, प्रासुक (जीवजन्तुरहित) हो, स्वपर के लिए निराबाध, और स्त्री-पशु-नपुंसकादि के उपद्रव से रहित हो।' विविध स्थानों में निवास से लाभ-प्रस्तुत में कपाटयुक्त स्थान में रहने की अभिलाषा का निषेध साधु की उत्कृष्ट साधना, अगुप्तता और अपरिग्रहवृत्ति का द्योतक है। इसका एक फलितार्थ भी हो सकता है कि कपाट वाले स्थान में ही रहने को इच्छा न करे किन्तु अनायास हो, स्वाभाविक रूप से कपाट वाला स्थान मिल जाए तो निवास करना वजित नहीं है। श्मशान में निवास वैराग्य एवं अनित्यता की भावना जागृत करने हेतु उपयुक्त है। तरुतलनिवास से पेड़ के पत्तों को गिरते देख तथा वृक्ष में होने वाले परिवर्तन को देखकर जीवन को अनित्यता का भाव उत्पन्न होगा। गृहकर्मसमारम्भनिषेध-गृहकर्मसमारम्भ से अनेक त्रस-स्थावर, स्थूल-सूक्ष्म जीवों को हिंसा होती है। अतः साधु मकान बनाने-बनवाने लिपाने-पुतवाने आदि के चक्कर में न पड़े / गृहस्थद्वारा बनाए हुए मकान में उसकी अनुज्ञा लेकर रहे / भोजन पकाने एवं पकवाने का निषेध 10. तहेव भत्तपाणेसु पयण-पयावणेसु य / पाणभूयदयट्ठाए न पये न पयावए / [10] इसी प्रकार भक्त-पान पकाने और पकवाने में हिंसा होतो है। अतः भिक्षु प्राणों और भूतों को दया के लिए न तो स्वयं पकाए और न दूसरे से पकवाए। 11. जल-धन्ननिस्सिया जीवा पुढवी-कट्टनिस्सिया / __ हम्मन्ति भत्तपाणेसु तम्हा भिक्खू न पायए / [11] भोजन और पान के पकाने-पकवाने में जल, धान्य, पृथ्वी और काष्ठ (ईन्धन) के ग्राश्रित जीवों का वध होता है, अत: भिक्ष न पकवाए। 12. विसप्पे सव्वोधारे बहुपाणविणासणे / नत्थि जोइसमे सत्थे तम्हा जोईन दीवए॥ [12] अग्नि के समान दूसरा कोई शस्त्र नहीं है, वह अल्प होते हुए भो चारों ओर फैल 1. (क) बृहदृवृत्ति, अ. रा. कोष, भा. 1, पृ. 280 (ख) मजिझमनिकाय, 2 / 3 / 7 पृ. 307 (ग) विमुद्धिमग्गो भा. 1, पृ. 73 से 76 तक / 2-3. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 330 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org