________________ पैंतीसवां अध्ययन : अनगारमार्गगति अध्ययन-सार * प्रस्तुत पैतीसवें अध्ययन का नाम अनगारमार्गगति (अणगारमग्गगई) है। इसमें घरबार, स्वजन-परिजन, तथा गृह-कार्य और व्यापार-धंधा आदि छोड़कर अनगार बने हुए भिक्षाजीवी मुनि को विशिष्ट मार्ग में गति (पुरुषार्थ) करने का संकेत किया गया है / यद्यपि भगवान महावीर ने अगारधर्म और अनगारधर्म दो प्रकार के धर्म बताए हैं, और इन दोनों की आराधना के लिए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप मोक्षमार्ग बताया है, किन्तु दोनों धर्मों की आराधना-साधना में काफी अन्तर है। उसी को स्पष्ट करने एवं अनगारधर्ममार्ग को विशेष रूप से प्रतिपादित करने हेतु यह अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। अगारधर्मपालक अगारवासी (गृहस्थ) और अनगारधर्मपालक निर्ग्रन्थ भिक्षु में चारित्राचार की निम्न बातों में अन्तर है / ----(1) अगारधर्मी पुत्र-कलत्रादि के संग को सर्वथा नहीं त्याग सकता, जबकि अनगारधर्मपालक को ऐसे संग का सर्वथा त्याग करना अनिवार्य है। * सागार (गृहस्थ) हिंसादि पंचाश्रवों का पूर्णतया त्याग नहीं कर सकता, जबकि अनगार को पांचों आश्रवों का तीन करण तीन योग से सर्वथा त्याग करना तथा महाव्रतों का ग्रहण एवं पालन आवश्यक है। * गृहस्थ अपने परिवार के स्त्री पुत्रादि तथा पशु आदि से युक्त घर में निवास करता है, परन्तु साधु को स्त्री आदि से सर्वथा असंसक्त, एकान्त, निरवद्य, परकृत जीव-जन्तु से रहित निराबाध, श्मशान, शून्यगृह तरुतल आदि में निवास करना उचित है / * गृहस्थ मकान बना या बनवा सकता है. उसे धुलाई पुताई या मरम्मत करा कर सुवासित एवं सुदृढ़ करवा सकता है ; वह गृहनिर्माणादि प्रारम्भ से सर्वथा मुक्त नहीं है, परन्तु साधु प्रारम्भ (हिंसा) का सर्वथा त्यागी होने से उसका मार्ग (धर्म) है कि वह न तो स्वयं मकान बनाए, न बनवाए, न ही मकान को रंगाई-पुताई करे-करावे / * गृहस्थ रसोई बनाता-बनवाता है, वह भिक्षा करने का अधिकारी नहीं, जबकि साधु का मार्ग है कि वह न भोजन पकाए न पकवाए क्योंकि उससे अग्नि पानी, पृथ्वी, अन्न तथा काष्ठ के प्राश्रित अनेक जीवों की हिंसा होती है, जो अनगार के लिए सर्वथा त्याज्य है। * गृहस्थ अपने तथा परिवार के निर्वाह के लिए उनके विवाहादि तथा अन्य खर्च के लिए मकान, दूकान आदि बनाने के लिए व्यवसाय, नौकरी आदि करके धनसंचय करता है, किन्तु अनगारका मार्ग (धर्म) यह है कि वह जीवननिर्वाह के लिए न तो सोना-चाँदी ग्रादि के रूप में धन ग्रहण करे, न कोई चीज खरीद-बेच कर व्यापार करे, किन्तु निर्दोष एषणीय भिक्षा के रूप में अन्नवस्त्रादि ग्रहण करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org