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________________ 624] [उत्तराध्ययनसून * गृहस्थ अपनी जिह्वा पर नियंत्रण न होने से स्वादिष्ट भोजन बनाता और करता है, विवाहादि में खिलाता है, परन्तु अनगार का मार्ग यह है कि वह जिह्वन्द्रिय को वश में रखे, स्वादलोलुप होकर स्वाद के लिए न खाए, किन्तु संयमयात्रा के निर्वाहार्थ आहार करे। * गृहस्थ अपनी पूजा, प्रतिष्ठा, सत्कार, सम्मान के लिए एड़ी से लेकर चोटी तक पसीना बहाता है, चुनाव लड़ता है, प्रचुर धन खर्च करता है, परन्तु अनगार का मार्ग यह है कि वह पूजा प्रतिष्ठा, सत्कार, सम्मान, वन्दना, ऋद्धि-सिद्धि की कामना कदापि न करे / * गृहस्थ अकिंचन नहीं हो सकता। वह शरीर के प्रति ममत्व रखता है। उसका भली भांति पोषण-जतन करता है किन्तु अनगार का धर्म है अकिंचन, अनिदान, निःस्पृह, शरीर के प्रति निर्ममत्व एवं आत्मध्याननिष्ठ बनकर देहाध्यास से मुक्त बनना। * प्रस्तुत अध्ययन में कहा गया है कि अनगार मार्ग में गति करने वाला पूर्वोक्त धर्म का आराधक ऐसा वीतराग समतायोगी मुनि केवलज्ञान एवं शाश्वत मुक्ति प्राप्त कर समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। * निष्कर्ष यह है कि अनगारमार्ग, अगारमार्ग से भिन्न है / वह एक सुदीर्घ साधना है, जिसके लिए जीवनपयन्त सतत सतक एव जागत रहना होता है। ऊंचे-नीच, अच्छे-बुरे प्रसगो तथा जीवन के उतार-चढ़ावों में अपने को संभालना पड़ता है / बाहर से घर बार, परिवार आदि के संग को छोड़ना आसान है, मगर भीतर में प्रसंग तभी हुया जा सकता है, जब अनगार देह, गेह, धन-कंचन, भक्त-पान, आदि की प्रासक्ति से मुक्त हो जाए, यहाँ तक कि जीवन-मरण, यश-अपयश, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, सम्मान-अपमान आदि द्वन्द्वों से भी मुक्त हो जाए। अनगारधर्म का मार्ग आत्मनिष्ठ होकर पंचाचारों में पराक्रम करने का मार्ग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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