________________ 622] [उत्तराध्ययनसूत्र 60. अन्तमहत्तम्मि गए अन्तमुत्तम्मि सेसए चेव / लेसाहि परिणयाहि जीवा गच्छन्ति परलोयं // 60] लेश्याओं की परिणति होने पर जब अन्तर्मुहूर्त व्यतीत हो जाता है, और जब अन्तमहूर्त शेष रहता है, उस समय जीव परलोक में जाते हैं / विवेचन--परलोक में लेश्याप्राप्ति कब और कैसे ? --प्रतिपत्तिकाल की अपेक्षा से छहों हो लेश्याओं के प्रथम समय में जीव का परभव में जन्म नहीं होता और न ही अन्तिम समय में। किसी भी लेश्या की प्राप्ति के बाद अन्तर्मुहूर्त बीत जाने पर और अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर जीव परलोक में जन्म लेते हैं / आशय यह है कि मृत्यूकाल में आगामी भव को और उत्पत्तिकाल में अतोतभव को लेश्या का अन्तर्महर्तकाल तक होना आवश्यक है। देवलोक और नरक में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों और तिर्यञ्चों को मृत्युकाल में अन्तर्मुहुर्तकाल तक अग्रिम भव की लेश्या का सद्भाव होता है / मनुष्य और तिर्यञ्च गति में उत्पन्न होने वाले देव-नारकों को भी मरणानन्तर अपने पहले भव को लेश्या अन्तर्मुहुर्तकाल तक रहती है। अतएव पागम में देव और नारक की लेश्या का पहले और पिछले भव के लेश्यासम्बन्धी दो अन्तर्मुहूत्तों के साथ स्थिति काल बतलाया है। प्रज्ञापनासूत्र में भी कहा है,जिनलेश्याओं के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव मरता है, उन्हीं लेश्याओं को प्राप्त करता है। उपसंहार 61. तम्हा एयाण लेसाणं अणुभागे वियाणिया। अप्पसत्थाओ वज्जित्ता पसत्थाओ अहिट्ठज्जासि / / --त्ति बेमि / [61] अतः लेश्यानों के अनुभाग (विपाक) को जान कर अप्रशस्त लेश्याओं का परित्याग करके प्रशस्त लेश्याओं में अधिष्ठित होना चाहिए / -ऐसा मैं कहता हूँ। / चौतीसवाँ लेश्याध्ययन समाप्त / 1. (क) बृहृवृत्ति, प्र. रा. को भा. 6, पृ. 695 (ख) जल्लेसाई दवाई आयइत्ता कालं करेति, तल्लेसेसू उववज्जइ / -प्रज्ञापना पद 173-4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org