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________________ चौतीसवां अध्ययन : लेश्याध्ययन] 621 प्रतिज्ञा की है, किन्तु 52 वी गाथा में सिर्फ वैमानिक देवों की तेजोलेश्या की स्थिति निरूपित की है, जबकि 53 वी गाथा में प्रतिपादित लेश्या की स्थिति का कथन चारों प्रकार के देवों की अपेक्षा से है। इसका संकेत टीकाकारों ने भी किया है।' 10. गतिद्वार 56. किण्हा नीला काऊ तिन्ति वि एयाओ अहम्मलेसाओ। ___ एयाहि तिहि वि जोवो दुग्गइं उववज्जई बहुसो // [56] कृष्ण, नील और कापोत; ये तीनों अधर्म (अप्रशस्त) लेश्याएँ हैं / इन तीनों से जीव अनेकों बार दुर्गति में उत्पन्न होता है / 57. तेऊ पम्हा सुक्का तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाप्रो। एयाहि तिहि वि जीवो सुग्गई उववज्जई बहुसो / [57] तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या; ये तीनों धर्म-लेश्याएँ हैं। इन तीनों से जीव अनेकों वार सुगति को प्राप्त होता है। विवेचनदुर्गति-सुगतिकारिणी लेश्याएँ--प्रारम्भ की कृष्णादि तीन लेश्याएँ संक्लिष्ट अध्यवसाय रूप होने से अथवा पापोपादान का हेतु होने से अप्रशस्त, अविशुद्ध एवं अधर्मलेश्याएँ कही गई हैं, अतएव दुर्गतिगामिनी (नरक-तिर्यञ्च रूप दुर्गति में ले जाने वाली) हैं। पिछली तीन (तेजो, पद्म एवं शुक्ल) लेश्याएँ प्रशस्त, विशुद्ध एवं असंक्लिष्ट अध्यवसाय रूप होने से, अथवा पुण्य या धर्म का हेतु होने से धर्मलेश्याएँ हैं, अतएव देव-मनुष्यरूप सुगतिगामिनी हैं / 11. प्रायुष्यद्वार 58. लेसाहिं सव्वाहि पढमे समयम्मि परिणयाहि तु / ___ न वि कस्सवि उववालो परे भवे अस्थि जीवस्स / / 58] प्रथम समय में परिणत सभी लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। 59. लेसाहिं सवाहि चरमे समयम्मि परिणयाहि तु / न वि कस्सवि उववाओ परे भवे अस्थि जीवस्स / / [56] अन्तिम समय में परिणत सभी लेश्याओं से भी कोई जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। 1. "इयं च सामान्योपक्रमेऽपि वैमानिकनिकायविषयतया नेया।" -सर्वार्थ सिद्धि टीका 2. (क) तमो लेसाम्रो अविसुद्धायो, तमो विसुद्धानो, तो पसत्थानो, तो अपसत्थानो, तो संकिलिट्रानो, तग्रो प्रसंकि लिट्रानो, तो दुग्गतिगामियामो, तो सूगतिगामियायो / ... प्रज्ञापना पद 17 उ. 4 पृ. सू. 228 हदवत्ति, अ. रा. कोष भा.६, प.६८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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