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________________ 620] [उत्तराध्ययनसूत्र 55. जा पम्हाए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमभहिया। जहन्नेणं सुक्काए तेत्तीस-मुत्तमभहिया // [55] जो पद्मलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक शुक्ललेश्या की जघन्य स्थिति है और उत्कृष्ट स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर है। विवेचन-लेश्याओं की स्थिति--प्रस्तूत द्वार की गाथा 34 से 36 तक में सामान्य रूप से प्रत्येक लेश्या की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण किया गया है। फिर चारों गतियों को अपेक्षा से गाथा 40 से 55 तक में व्युत्क्रम से लेश्याओं की जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण है / ' महर्ताद्ध : भावार्थ-मुहर्तार्द्ध का बराबर समविभागरूप 'अर्द्ध' अर्थ यहाँ विवक्षित नहीं है। अतः एक समय से ऊपर और पूर्ण मुहूर्त से नीचे के सभी छोटे-बड़े अंश यहाँ विवक्षित हैं / इसी दृष्टि से मुहर्तार्द्ध का अर्थ अन्तर्मुहर्त किया गया है। पद्मलेश्या की स्थिति--एक मुहूर्त अधिक दस सागर की जो स्थिति गाथा 38 में बताई है, उसमें मुहूर्त से पूर्व एवं उत्तर भव से सम्बन्धित दो अन्तर्महूर्त विवक्षित हैं।' नीललेश्या आदि की स्थिति इनके स्थितिनिरूपण में जो पल्योषम का असंख्येय भाग बताया है, उसमें भी पूर्वोत्तर भव से सम्बन्धित दो अन्तर्महुर्त प्रक्षिप्त हैं। फिर भी सामान्यतया असंख्येय भाग कहने में कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि असंख्येय के भी असंख्येय भेद होते हैं। तिर्यञ्च-मनुष्य सम्बन्धी लेश्याओं की स्थिति–गाथा 45-46 में जघन्यत: और उत्कृष्टतः दोनों ही रूप से अन्तर्मुहूर्त बताई है, वह कथन भावलेश्या की दृष्टि से है, क्योंकि छद्मस्थ व्यक्ति के भाव अन्तर्मुहूर्त से अधिक एक स्थिति में नहीं रहते / ' शुक्ललेश्या की स्थिति-गाथा 45 में शुद्ध शुक्ललेश्या को छोड़ दिया गया है और गाथा 46 में शुक्ललेश्या की स्थिति का प्रतिपादन किया है, यह केवली की अपेक्षा से है, क्योंकि सयोगी केवली की उत्कृष्ट केवलपर्याय 6 वर्ष कम पूर्वकोटि है और सयोगी केवली को एक-सरीखे व्यवस्थित भाव होने से उनकी शुक्ललेश्या की स्थिति भी 9 वर्ष कम पूर्वकोटि बताई गई है / अयोगी केवली में लेश्या होती ही नहीं है / पाठ-व्यत्यय-गाथा 52-53 के मूलपाठ में व्यत्यय मालम होता है। 52 के बदले 53 वीं और 53 के बदले 52 वी गाथा होनी चाहिए। क्योंकि 51 वी गाथा में शास्त्रकार के 'भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक सभो देवों की तेजोलेश्या की स्थिति का प्रतिपादन करने को 1. उत्तरा. गुजराती भाषान्तर भा. 2, पत्र 324 से 327 तक 2. बृहद्वत्ति, अ. रा. कोष, भा. 6, पृ. 691 3, वही. अ, स, कोप, भा. 6 पृ. 691 4. वही, अ. रा. कोष, भा. 6, पृ. 691 5. वही, अ. रा. कोष, भा. 6, पृ. 692 6. .......वजयित्वा शूद्धा केवला शुक्ललेश्यामिति यावत् ....... "वही, अ. रा. कोष, भा. 6, पृ. 692 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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