________________ 616] [उत्तराध्ययनसूत्र [30] जो अल्पभाषी है, उपशान्त है और जितेद्रिय है, इन योगों से युक्त जीव पद्मलेश्या में परिणत होता है। 31. अट्टरुद्दाणि बज्जित्ता धम्मसुक्काणि झायए। पसन्तचित्ते दन्तप्पा समिए गुत्ते य गुत्तिहिं / / [31] पात और रौद्र ध्यानों का त्याग करके जो धर्म और शुक्लध्यान में लीन है, जो प्रशान्तचित्त और दान्त है, जो पांच समितियों से समित और तीन गुप्तियों से गुप्त है-- 32. सरागे वीयरागे वा उबसन्ते जिइदिए / एयजोगसमाउत्तो सुक्कलेसं तु परिणमे // [32] (ऐसा व्यक्ति) सराग हो, या वीतराग; किन्तु जो उपशान्त और जितेन्द्रिय है जो इन योगों से युक्त है, वह शुक्ललेश्या में परिणत होता है / / विवेचन--छसुप्रविरओ-पृथ्वीकायादि षट्कायिक जीवों के उपमर्दन (हिंसा) आदि से विरत न हो। तिव्वारंभपरिणनो-शरीरतः या अध्यवसायत: अत्यन्त तीव्र प्रारम्भ-सावध व्यापार में जो परिणत-रचा-पचा है। गिद्ध धसपरिणामो-जिसके परिणाम इहलोक या परलोक में मिलने वाले दुःख या दण्डादि अपाय के प्रति अत्यन्त निःशंक (बेखटके) हैं अथवा जो प्राणियों को होने वाली पीड़ा की परवाह नहीं करता है। सायगवेसए-अहर्निश सुख की चिन्ता में रहता है-मुझे कैसे सुख हो, इसो की खोज में लगा रहता है। एयजोगसमाउत्तो--इन पूर्वोक्त लक्षणों के योगों-मन, वचन, काया के व्यापारों से युक्त, अर्थात्--इन्हीं प्रवृत्तियों में मन, वचन, काया को लगाए रखने वाला। ___ काउलेसं तु परिणमे आशय ---कापोतलेश्या के परिणाम वाला है। अर्थात्-उसको मनःपरिणति कापोतलेश्या की है / इसी प्रकार अन्यत्र समझ लेना चाहिए। विणीयविणए-अपने गुरु आदि का उचित विनय करने में अभ्यस्त / ' 8. स्थानद्वार ___33. असंखिज्जाणोसप्पिणीण उस्सप्पिणोण जे समया। संखाईया लोगा लेसाणं हुन्ति ठाणाई // [33] असंख्य अवसर्पिणी और उत्सपिणी काल के जितने समय होते हैं अथवा असंख्यात लोकों के जितने आकाशप्रदेश होते हैं; उतने ही लेश्याओं के स्थान (शुभाशुभ भावों की चढ़तीउतरती अवस्थाएँ) होते हैं। 1. बृहद्वत्ति, उत्त. 34, अ. रा. कोष भा. 6, पृ. 688-690 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org