________________ नारदपरिवाजकोपनिषद्र 23, तेजोबिन्दूपनिषद् 224, याज्ञवल्क्योपनिषद्२२५, पारुणिकोपनिषद्र 21, गीता२२७, योगसूत्र 228 प्रादि ग्रन्थों में अपरिग्रह शब्द का प्रयोग हुअा है किन्तु वे सारे ग्रन्थ भगवान महावीर के बाद के हैं, ऐसा ऐतिहासिक मनीषियों का मत है। भगवान महावीर के पूर्ववर्ती ग्रन्थों में 'अपरिग्रह' शब्द का प्रयोग महान व्रत के रूप में नहीं हुआ है। डॉ. हर्मन जेकोबी ने लिखा है- जैनों ने अपने व्रत ब्राह्मणों से उधार लिए हैं / 226 उनका यह मन्तब्य है-ग्राह्मण संन्यासी अहिंसा, सत्य, अचौर्य, सन्तोष और मुक्तता इन व्रतों का पालन करते थे। उन्हीं का अनुसरण जैनियों ने किया है। डॉ. जेकोबी की प्रस्तुत कल्पना केवल निराधार कल्पना ही है। उसका वास्तविक और ठोस आधार नहीं है। ब्राह्मण परम्परा में पहले व्रत नहीं थे। बोधायन आदि में जो निरूपण है वह बहुत ही बाद का है। ऐतिहासिक रष्टि से भगवान पार्श्व के समय व्रत-व्यवस्था थी। वही व्रत-व्यवस्था भगवान महावीर ने विकसित की थी। तथागत बुद्ध ने उसे अष्टाङ्गिक मार्ग के रूप में स्वीकार किया और योगदर्शन में यम-नियमों के रूप में उसे ग्रहण किया गया। गांधीजी के ग्राश्रमधर्म का प्राधार भी वही है। ऐसा धर्मानन्द कौशाम्बी का भी अभिमत है। 3. डॉ. रामधारी सिंह दिनकर 23' का मन्तव्य है हिन्दुत्व और जैनधर्म परम्पर में घल-मिलकर इतने एकाकार हो गये हैं कि आज का सामान्य हिन्दु यह जानता भी नहीं है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह जैनधर्म के उपदेश थे न कि हिन्दुत्व के / अाधुनिक अनुसन्धान से यह स्पष्ट हो चुका है कि व्रतों की परम्परा का मूलस्रोत श्रमण-संस्कृति है। 32 इम प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में युग-युग के सघन संशय और उलझे हुए विकल्पों का सही समाधान है। इस संवाद में समत्व को प्रधानता है। इस प्रकार के परिसंवादा से ही सत्य-तथ्य उजागर होता हैं, श्रत और शील का समुत्कर्ष होता है / इस अध्ययन में आत्मविजय और मन का अनुशासन करने के लिए जो उपाय प्रशित किये गये हैं, वे आधुनिक तनाव के युग में परम उपयोगी हैं। चचल मन को एकाग्न करने के लिए धर्मशिक्षा आवश्यक बनाई है। 33 वही बात गीताकार ने भी कही है-मन को वश में करने के लिए अभ्याम 223. नारद परिव्राजकोपनिषद् 31816 224. तेजोबिन्दूपनिषद् 113 225. याज्ञवल्क्योपनिषद् 21 226. प्रारुणिकोपनिषद् 3 227. गीता 6 / 10 228. योगसूत्र 2 / 30 229. "It is therefore probable that the Jain as have borrowed their own Vows from the Brahmans, not From the Buddhists." - The Sacred Books of the East, Vol. XXII, Introduction P. 24. 230. भगवान् पाश्र्वनाथ का चातुर्याम धर्म, भूमिका पृष्ठ 6 211. संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ 125 232. देखिए लेखक का भगवान पार्श्वनाथ : एक समीक्षात्मक अध्ययन / 233. उत्तराध्ययन सूत्र-२३१५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org