________________ 606] [उत्तराध्ययनसून आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त-अनन्त कर्मवर्गणाएँ (कर्मपुद्गल-दलिक) चिपकी रहती हैं / अनन्त का सांकेतिक माप बताते हुए कहा गया है कि वह अनन्त यहाँ अभव्य जीवों से अनन्तगुण अधिक और सिद्धों के अनन्तवें भाग जितना है। गोमट्टसार कर्मकाण्ड में इसी तथ्य को प्रकट करने वाली गाथा मिलती है। यह द्रव्य को अपेक्षा से कर्मपरमाणुओं का परिमाण बताया गया है / ' क्षेत्र की अपेक्षा से--समस्त संसारी जीव छह दिशानों से आगत कर्मपुद्गलों को प्रतिसमय ग्रहण करते (बांधते) हैं। वे कर्म, जीव के द्वारा अवगाहित आकाशप्रदेशों में स्थित रहते हैं / जिन कर्मपुद्गलों को यह जीव ग्रहण (कषाय के योग से आकृष्ट ) करता है, वे समस्त कर्मपुद्गल ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि समस्त कर्मों के रूप में परिणत हो जाते हैं, तथा (वे समस्त कर्म) समस्त प्रात्मप्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाढ होकर सब प्रकार से (अर्थात्-प्रकृति, स्थिति आदि प्रकार से) क्षीर-नीर की तरह एकक्षेत्रावगाढ होकर (रागादि स्निग्धता के योग से) बन्ध (चिपक) जाते हैं / काल की अपेक्षा से...-५ गाथानों में (11 से 23 तक) प्रत्येककर्म को जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बताई गई। इससे शास्त्रकार ने स्थितिबन्ध' का निरूपण कर दिया है। यहाँ केवल असातावेदनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति इतनी (अन्तर्मुहर्त) हो समझना चाहिए / जघन्यस्थिति नहीं; क्योंकि प्रज्ञापनासूत्र में सातावेदनीय को जघन्यस्थिति 12 मुहूर्त की और असातावेदनीय को जघन्यस्थिति सागरोपम के सात भागों में से तीन भाग प्रमाण बताई गई है। भाव की अपेक्षा से--कर्मों के रसविशेष (अनुभाग) कर्मों में अनुभावलक्षणरूप भाव) सिद्धों के अनन्त भाग प्रमाण हैं। तथा समस्त अनुभागों में प्रदेश-परिमाण समस्त भव्य अभव्यजीवों से भी अनन्तगुणा अधिक है। यहाँ कर्मों के अनुभागबन्ध का निरूपण किया गया है। बन्धनकाल में उसके कारणभूत काषायिक अध्यवसाय के तोत्रमन्दभाव के अनुसार प्रत्येककर्म में तीव्रमन्द फल देने की शक्ति उत्पन्न होती है। अतः विपाक अर्थात् विविध प्रकार के फल देने का यह सामर्थ्य ही अनुभाव है और उसका निर्माण ही अनुभावबन्ध है। प्रत्येक अनुभावशक्ति उस-उस कर्म के स्वभावानुसार फल देती है। उपसंहार 25. तम्हा एएसि कम्माणं अणुभागे वियाणिया / एएसि संवरे चेव खवणे य जए बुहे / / -~-त्ति बेमि // 1. (क) उत्तरा. प्रियशिनीटीका भा. 4, पृ. 591 (ख) ग्रन्थिरिव ग्रन्थि:--घनो रागद्वेषपरिणामस्तत्र गताः ग्रन्थिगा:--निविउरागद्वेषपरिणामविशेषरूपस्य ग्रन्थे दनाऽक्षमतया यथाप्रवत्तिकरणं प्राप्येव पतन्ति, नतु तदुपरिष्टात अपूर्वकरणादौ गन्तु कथमपि कदाचिदपि समर्था भवन्ति ते ग्रन्थिमा इत्यर्थः / (ग) सिद्धाणंतियभागं अभब्वसिद्धादर्णतगुणमेव / समयपबद्ध बंधदि, जोमवसादो दू विसरित्थं // -गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा. 4, 2. उतरा. प्रियदर्शिनी भा. 4, पृ. 593 3. वही, भा. 4, पृ. 597 4. (क) वहीं, भा. 4, पृ. 600, (ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. 8.22-23 (पं. सुखलालजी) पृ. 202 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org