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________________ तेतीसा अध्ययन : कर्मप्रकृति] [607 [25] इसलिए इन कर्मों के अनुभागों को जान कर बुद्धिमान् साधक इनका संवर और क्षय करने का प्रयत्न करे। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन अनुभागों को जान कर ही संवर या निर्जरा का पुरुषार्थ कर्मों के अनुभागों को जानने का अर्थ है-कौन-सा कर्म कितने काषायिक तीब्र मध्यम या मन्द भावों से बांधा गया है ? कौन-सा कर्म किस-किस प्रकृति (स्वभाव) का है ? उदाहरणार्थ-ज्ञानावरणीयकर्म का अनुभाव उस कर्म के स्वभावानुसार ही तीव्र या मन्द फल देता है, वह ज्ञान को ही आवृत करता है; दर्शन आदि को नहीं। फिर कर्म के स्वभावानुसार विपाक का नियम भी मूलप्रकृतियों पर ही लाग होता है, उत्तरप्रकृतियों पर नहीं। क्योंकि किसी भी कर्म की एक उत्तरप्रकृति बाद में अध्यवसाय के बल से उसी कर्म की दूसरी उत्तरप्रकृति के रूप में बदल सकती है। इसलिए पहले अनुभाग (कर्म विपाक) के स्वभाव एवं उसकी तीव्रता-मन्दता आदि जान लेना आवश्यक है, अन्यथा जिस कर्म का संवर या निर्जरा करना है, उसके बदले दूसरे का संवर या निर्जरा (क्षय) करने का व्यर्थ पुरुषार्थ होगा। अतः ज्ञानावरणीयादि कर्मों के प्रकृतिबन्ध आदि को कटुविपाक एवं भवहेतु वाले जान कर तत्त्वज्ञ व्यक्ति का कर्तव्य है कि इनका संबर और क्षय करे।' // तेतीसवाँ अध्ययन : कर्मप्रकृति समाप्त / / 1. (क) तत्त्वार्थमूत्र प्र. 8122-23-24 (पं. सुखलालजी) पृ. 202 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा, 4, पृ. 601 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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