________________ 604] 1 उत्तराध्ययनसूत्र गोत्रकर्म : प्रकार और स्वरूप-गोत्रकर्म दो प्रकार का है—उच्चगोत्र और नीचगोत्र / जातिमद आदि पाठ प्रकार का मद न करने से उच्चगोत्र का बन्ध होता है और जातिमद आदि पाठ प्रकार का मद करने से नीचगोत्र का / तत्त्वार्थसूत्र में परनिन्दा, आत्मप्रशंसा दूसरे के सद्गुणों का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन, इन्हें नीचमोत्र कर्म के बन्ध हेतु कहा गया है, तथा इनके विपरीत परप्रशंसा, आत्मनिन्दा ग्रादि तथा नम्रवृत्ति और निरभिमानता, ये उच्चगोत्रकर्म के बन्धहेतु कहे गए हैं।' अन्तरायकर्म : प्रकार और स्वरूप—अन्तरायकर्म के पांच भेद हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय / दानादि में विघ्न डालना, ये दानादि पांचों के कर्मबन्ध के हेतु हैं। पात्र तथा देय वस्तु होते हुए तथा दान का फल जानते हुए भी दान देने की इच्छा (प्रवृत्ति) न होना, दानान्तराय है। उदारहृदय दाता तथा याचनाकुशल याचक होते हुए भी याचक को लाभ न होना, लाभान्तराय है / आहारादि भोग्य वस्तु होते हुए भी भोग न सकना, भोगान्तराय है। वस्त्रादि उपभोग्य वस्तु होते हुए भी उपभोग न कर सकना उपभोगान्तराय है, शरीर नीरोग और युवा होते हुए एक तिनके को भी मोड़ (तोड़) न सकना, वीर्यान्तराय है / 2 __ इस प्रकार 12 गाथाओं (4 से 15 तक) में आठ कर्मों की उत्तरप्रकृतियों का निरूपण किया गया है / पाठ मूल प्रकृतियों का उल्लेख इससे पूर्व किया जा चुका है। कर्मों के प्रदेशाग्र, क्षेत्र, काल और भाव 16. एयाओ मूलपयडीओ उत्तरामो य आहिया। पएसग्गं खेत्तकाले य भावं चादुत्तरं सुण // [16] ये (पूर्वोक्त) कर्मों की मूल प्रकृतियाँ और उत्तर-प्रकृत्तियाँ, कही गई हैं। अब इनके प्रदेशाग्र (-द्रव्य परमाणु-परिमाण), क्षेत्र, काल और भाव को सुनो। 17. सन्वेसि चेव कम्माणं पएसगमणन्तगं / ___ गण्ठिय-सत्ताईयं अन्तो सिद्धाण प्राहियं / / [17] (एक समय में ग्राह्य-बद्ध होने वाले) समस्त कर्मों का प्रदेशाग्र (कर्म-परमाण-पुद्गलद्रव्य दलिक) अनन्त होता है / वह (अनन्त) परिमाण ग्रन्थिग (ग्रन्थिभेद न करने वाले-अभव्य) जीवों से अनन्तगुणा अधिक और सिद्धों के अनन्तवें भाग जितना कहा गया है। 18. सव्वजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं / सव्वेसु वि पएसेसु सब्बं सव्वेण बद्धगं॥ [18] सभी जीव छह दिशाओं में रहे हुए (ज्ञानावरणीय आदि) कर्मों (कार्मणवर्गणा के 1, (क) परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसदगुणाच्छादनोदभावने च नीचैगोत्रस्य। (ख) तद विपर्ययो नीचैव त्यनुत्सेको चोत्तरस्य / -तत्त्वार्थसूत्र 6/24-25 2. (क) 'विघ्नकरणमन्तरायस्य / ' --तत्त्वार्थ. अ-६/२६ (ख) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 313-314 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org