________________ तेतीसवाँ अध्ययन : कर्मप्रकृति] [603 चारित्र को अंगीकार नहीं कर सकता / चारित्रमोहनीय दो प्रकार का है--कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय / क्रोधादि कषायों के रूप से जो वेदन (अनुभव) किया जाता है, वह कषायमोहनीय है और कषायों के सहचारी हास्यादि के रूप में जो वेदन किया जाता है, वह नोकषायमोहनीय है / कषाय मूलत: चार प्रकार के हैं--क्रोध, मान, माया और लोभ / फिर इन चारों के प्रत्येक के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन रूप से चार-चार भेद हैं। यों कषायमोहनीय के 16 भेद हैं / नोकषायमोहनीय के नौ भेद हैं-हास्य, रति, अरति, शोक, भय पीर जुगुप्सा, तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद / तीनों वेदों को सामान्य रूप से एक ही गिना जाए तो इसके सात ही भेद होते हैं।' आयुष्यकर्म के प्रकार और कारण -आयुष्यकर्म चार प्रकार का है-तरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु। महारम्भ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रियवध और मांसाहार, ये चार नरकायु के बन्धहेतु हैं, माया एवं गूढमाया तिर्यञ्चायु के बन्धहेतु हैं, अल्पारम्भ, अल्पपरिग्रह, स्वभाव में मृदुता और ऋजुता, ये मनुष्यायु के बन्धहेतु हैं। और सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप, ये देवायु के बन्ध हेतु हैं। नामकर्म : प्रकार और स्वरूप-नामकर्म दो प्रकार का है---शुभनामकर्म और अशुभनामकर्म / योगों की वक्रता और विसंवाद अशुभ नामकर्म के हेतु हैं और इनसे विपरीत योगों को अवक्रता और अविसंवाद शुभ नामकर्म के बन्धहेतु हैं। मध्यम विवक्षा से शुभ और अशुभ नामकर्म के प्रत्येक के क्रमश: 37 और 34 भेद कहे गए हैं। यों उत्तर भेदों की उत्कृष्ट विवक्षा से प्रत्येक के अनन्त भेद हो सकते हैं। इनमें तीर्थंकर नामकर्म के 20 बन्ध हेतु हैं। 1. उत्तरा. प्रियशनीटीका, भा. 4, पृ. 586-587 2. (क) 'बह्वारम्भ-परिग्रहत्वं न नारकस्यायुषः / ' (ख) 'माया तैर्यग्योनस्य / ' (ग) 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य / ' (घ) 'सरागसंयम-संयमासंयमाकामनिर्जरा-बालतपांसि देवस्य। -तत्वार्थ, अ. 616 से 20 तक 3. (क) योगवक्रता विसंवादनं चाशूभस्य नाम्नः / (ख) तविपरीतं शुभस्य (ग) निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम् / (घ) दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता..........................."तीर्थकृत्वस्य / -तत्त्वार्थ सूत्र 6/21 से 23 तक (ङ) शुभनाम कर्म के 37 भेव--१-मनुष्य, २-देवगति, ३-पंचेन्द्रिय जाति, ४-८-ौदारिकादि पांच गरीर, ९११-प्राथमिक तीन शरीरों के अंगोपांग, १२-१५-प्रशस्त वर्णादि चार, १६-प्रथम संस्थान, १७-प्रथम संहनन, १८-मनुष्यानुपूर्वी, १९-देवानुपूर्वी, २०-अमुरुलघु, २१-पराघात, २२-प्रातप, २३-उद्योत, २४उच्छ्वास, २५-प्रशस्त विहायोगति, २६-त्रस, २७-बादर, २८-पर्याप्त, २९-प्रत्येक. ३०-स्थिर, ३१-शुभ, ३२सुभग, ३३-सूस्वर, ३४-पादेय, ३५-यशोकीत्ति, ३६-निर्माण और ३७-तीर्थकरनामकर्म / अशुभनामकर्म के 34 भेव--१-२-नरक-तिर्यञ्चगति, ३-६-एकेन्द्रियादि 4 जाति, ७-११-प्रथम को छोड़ कर . शेष 5 संहनन, १२-१६-प्रथम को छोड़ कर शेष 5 संस्थान, १७-२०-अप्रशस्त वर्णादि चार, २१-२२-नरकतिर्यचानपूर्वी, २३-उपघात, २४-अप्रशस्तविहायोगति. २५-३४-स्थावरदशक | (छ) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 4, पृ.५८८-५८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org