________________ [ उत्सराध्ययनसूत्र 14. गोयं कम्मं दुविहं उच्च नीयं च आहियं / उच्चं अट्ठविहं होइ एवं नीयं पि प्राहियं / / |14] गोत्रकर्म दो प्रकार का है-उच्चगोत्र और नीचगोत्र / उच्च (गोत्र) आठ प्रकार का है, इसी प्रकार नीचगोत्र भी (आठ प्रकार का) कहा गया है। 15. दाणे लाभे य भोगे य उवभोगे वोरिए तहा। पंचविहमन्तरायं समासेण वियाहियं / / |15] अन्तराय (कर्म) संक्षेप में पांच प्रकार का कहा गया है-दान-ग्रन्त राय, लाभ-अन्तराय. भोग-ग्रन्तराय, उपभोग-अन्त राय और वीर्य-अन्तराय विवेचन-ज्ञानावरणीयादि कर्मों के कारण--ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध के पांच-पांच कारण हैं-(१) ज्ञान और ज्ञानी के तथा दर्शन और दर्शनवान् के दोष निकालना (2) ज्ञान का निह्नव करना, (3) मात्सर्य, (4) पाशातना और (5) उपघात करना / ' साता और असाता वेदनीय के हेतु-भूत-अनुकम्पा, व्रती-अनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि योग, क्षान्ति और शौच, ये सातावेदनीय कर्मबन्ध के हेतु हैं। स्व-पर को दुःख, शोक, संताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन, ये असातावेदनीय कर्मबन्ध के हेतु हैं / 2 वर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय के बन्ध हेतु-केवलज्ञानी, श्रुत, संघ, धर्म एवं देव का अवर्णवाद (निन्दा) दर्शनमोहनीय कर्मबन्ध का हेतु है, जब कि कषाय के उदय से होने वाला तीव्र आत्मपरिणाम चारित्रमोहनीय कर्म के बन्ध का हेतु है। दर्शनविषयक मोहनीय दर्शनमोहनीय कहलाता है। सम्यक्त्वमोहनीयादि तीनों का स्वरूप-मोहनीय कर्म के पुद्गलों का जितना अंश शुद्ध है, वह शुद्धदलिक कहलाता है, वही सम्यक्त्व (सम्यक्त्वमोहनीय) है। जिसके उदय में भी तत्त्वार्थ श्रद्धानतत्त्वाभिरुचि का विघात नहीं होता / मिथ्यात्व अशुद्ध दलिकरूप है, जिसके उदय से प्रतत्त्वों में तन्वबुद्धि होती है / सम्यग्मिथ्यात्व शुद्धाशुद्धलिकरूप है, जिसके उदय से जीव का दोनों प्रकार का मिश्रित श्रद्धान होता है / यद्यपि सम्यक्त्वादि जीव के धर्म हैं, तथापि उसके कारणरूप दलकों का भी सम्यक्त्वादि के नाम से व्यपदेश होता है / चारित्रमोहनीय : स्वरूप और प्रकार-जिसके उदय से जीव बारित्र के विषय में मोहित हो जाए, उसे चारित्रमोहनीय कहते हैं। इसका उदय होने पर जीव चारित्र का फल जान कर भी 1. तत्प्रदोष-निह्नव-मात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः। --तत्त्वायं. 6 / 11 2. (क) दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसवेद्यस्य / (ख) भूतव्रत्यनुकम्पादानं सरामसंयमादियोग: क्षान्ति: शौचमिति सदवेद्यस्य / --तत्त्वार्थ.६।१२-१३ (ग) उत्तरा. प्रियदर्शिनी टीका, भा. 4, पृ. 583 3. (क) केवलिश्रतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य / (ख) कषायोदया तीव्रात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य / 4. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 4, 5. 564-585 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org