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________________ [उत्तराध्ययनसूत्र के, कारण हैं, इन्द्रियों के विषय (अर्थ) नहीं, ऐसा जो संकल्प करता है, उस (के मन) में समता उत्पन्न होती है और उस (समता) से (उसकी) कामगुणों की तृष्णा क्षीण हो जाती है / विवेचन--वीतरागता या समता ही रागद्वषादि निवारण का हेतु-प्रस्तुत दो गाथानों में निष्कर्ष बता दिया है रागद्वेषादि के कारण इन्द्रियविषय नहीं, अपितु व्यक्ति के अपने ही मनोज्ञता-अमनोजता या रागद्वेषादि के संकल्प ही कारण हैं। यदि व्यक्ति में विरक्ति या समता जागृत हो जाए तो शब्दादि विषय या कामभोग उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते / उसके तृष्णा, रागद्वेषादि विकार क्षीण हो जाते हैं। वीतरागी की सर्वकर्मों और दुःखों से मुक्ति का क्रम 108. स वीयरागो कयसवकिच्चो खवेइ नाणावरणं खणणं / ___ तहेव जं वेसणमावरेइ जं चऽन्तरायं पकरेइ कम्मं / / [108] वह कृतकृत्य वीतराग आत्मा क्षणभर में ज्ञानावरण (कर्म) का क्षय कर लेता है, तथैव दर्शन को प्रावृत्त करने वाले कर्म का भी क्षय करता है और अन्तरायकर्म को भी दूर करता है। 109. सव्वं तनो जाणइ पासए य अमोहणे होइ निरन्तराए। अणासवे माणसमाहिजुत्ते आउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्ध। _ [106] तदनन्तर (ज्ञानावरणीय प्रादि कर्मों के क्षय के पश्चात्) वह सब भावों को जानता है और देखता है, तथा वह मोह और अन्तराय से रहित हो जाता है। वह शुद्ध और पाश्रवरहित हो जाता है। फिर वह ध्यान (शुक्लध्यान)-समाधि से युक्त होता है और आयुष्यकर्म का क्षय होते ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है। 110. सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को जं बाहई सययं जन्तुमेयं / दीहामयं विप्पमुक्को पसत्थो तो होइ प्रच्चन्तसुही कयत्यो / [110] वह उन समस्त दुःखों से तथा दीर्घकालीन कर्मों से मुक्त होता है, जो इस जीव को सदैव बाधा-पीड़ा देते रहते हैं। तब वह दीर्घकालिक अनादिकाल के रोगों से विमुक्त, प्रशस्त, अत्यन्त-एकान्त सुखी एवं कृतार्थ हो जाता है। विवेचन--सम्पूर्ण मुक्ति की स्थिति–प्रस्तुत तीन गाथाओं में बताया गया है कि जब प्रात्मा वीतराग हो जाता है, तब वह क्रमश: ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इन चार घातिकर्मों का क्षय कर डालता है, फिर वह कृतकृत्य, निराश्रव एवं शुद्ध हो जाता है, उसमें पूर्वोक्त कोई भी विकार प्रवेश नहीं कर सकते / तदनन्तर वह शुक्लध्यान का प्रयोग करके प्रायुष्य का क्षय होते ही शेष चार अघातिकर्मों से मुक्त हो जाता है और सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बन जाता है। समस्त कर्मों और दुःखों से मुक्त होकर वह निरामय, अत्यन्तसुखो, प्रशस्त और कृतार्थ हो जाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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