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________________ बत्तीसवां अध्ययन : अप्रमावस्थान] [595 रागद्वषादि विकारों के प्रवेश-स्रोतों से सावधान रहे 104. कप्यं न इच्छिज्ज सहायलिच्छू पच्छाणुतावेण तवप्पभावं / एवं वियारे प्रमियप्पयारे आवज्जई इन्दियचोरवस्से / / [104] (शरीर की सेवा-शुश्रूषारूप) सहायता की लिप्सा से कल्पयोग शिष्य की भी इच्छा न करे। (दीक्षा लेने के) पश्चात् पश्चात्ताप आदि करके तप के प्रभाव की भी इच्छा न करे / इस प्रकार की इच्छात्रों से इन्द्रियरूपी चोरों के वशीभूत होकर साधक अनेक प्रकार के अपरिमित विकारों (-दोषों) को प्राप्त कर लेता है / 105. तओ से जायन्ति पओयणाई निमज्जिउ मोहमहण्णवम्मि / सुहेसिणो दुक्खविणोयणट्टा तप्पच्चयं उज्जमए य रागी॥ [105] (पूर्वोक्त कषाय-नोकषायादि) विकारों के प्राप्त होने के पश्चात् सुखाभिलाषी (इन्द्रिय-चोर-वशीभूत) उस व्यक्ति को मोहरूपी महासागर में डुबाने के लिए (अपने माने हुए तथाकथित कल्पित) दुःखों के विनाश के लिए (विषयसेवन, हिंसा आदि) अनेक प्रयोजन उपस्थित होते है। इस कारण वह (स्वकल्पित दुःखनिवारणोपाय हेतु) उन (विषयसेवनादि) के निमित्त से रागी (और उपलक्षण से द्वेषी) होकर प्रयत्न करता है / विवेचन--रागी व्यक्ति का विपरीत प्रयत्न-असावधान साधक राग-द्वेष से मुक्ति के लिए संयमी जीवन अंगीकार करने के बाद भी किस प्रकार पूनः राग-द्वेष एवं कषायादि विकारों को पकड़ में फंस जाता है तथा रागद्वेषमुक्त होने के बदले विषयसेवनादि कामभोगों के राग में फंस कर दुःख पाता है ? इसे ही इन दो गाथाओं में बतलाया गया है। (1) शरीर और इन्द्रियजनित सुखों की अभिलाषा से प्रेरित होकर वह शिष्य बनाता है, (2) दीक्षित हो जाने के बाद पश्चात्ताप करता है कि हाय ! मैंने ऐसे कष्टों को क्यों अपनाया? इस दृष्टि से वह तपस्या का सौदा करके कामभोगादि की वांछा एवं निदान कर लेता है। (3) इस प्रकार इन्द्रिय-चोरों के प्रवेश के साथ-साथ उसके जीवन में कषाय एवं नोकषायादि विकार मोहसमुद्र में उसे डुबो देते हैं। (4) फिर वह अपने कल्पित दुःखों के निवारणार्थ रागो बन कर विषय-सुखों में तथा उनकी प्राप्ति के लिए हिंसादि में प्रवृत्त होकर दुःखमुक्ति के बदले नाना दुःखों को न्यौता दे देता है। अपने ही संकल्प-विकल्प : दोषों के हेतु 106. विरज्जमाणस्स य इन्दियत्था सद्दाइया तावइयप्पगारा। न तस्स सव्वे वि मणुन्नयं वा निव्वत्तयन्ती अमणुन्नयं वा // [106] इन्द्रियों के जितने भी शब्दादि-विषयों के प्रकार हैं, वे सभी विरक्त व्यक्ति के मन में मनोज्ञता या अमनोज्ञता उत्पन्न नहीं करते / / 107. एवं ससंकप्पविकप्पणासु संजायई समयमुवट्ठियस्स / अत्थे य संकप्पयनो तनो से पहीयए कामगुणेसु तण्हा / / [107] (व्यक्ति के) अपने ही संकल्प-(राग-द्वेष-मोहरूप अध्यवसाय)-विकल्प सब दोषों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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