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________________ 594] [उत्तराध्ययनसूत्र बन्धक भाव आ जाने से दुःखों की परम्परा बढ़ जाएगी। अतः सर्वत्र वीतरागता को ही दुःखमुक्ति या सर्वसुखप्राप्ति के लिए अपनाना उचित है / रागी के लिए हो ये दुःख के कारण, वीतरागी के लिए नहीं 100. एविन्दियत्था य मणस्स अत्था दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो। ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं न वीयरागस्स करेन्ति किंचि // [100] इस प्रकार इन्द्रिय और मन के जो विषय रागी मनुष्य के लिए दुःख के हेतु हैं, वे ही (विषय) वीतराग के लिए कदापि किंचित् मात्र भी दुःख के कारण नहीं होते। 101. न कामभोगा समयं उदन्ति न यावि भोंगा विगई उवेन्ति / जे तप्पओसी य परिग्गही य सो तेसु मोहा विगई उवेइ / / (101] कामभोग न समता (समभाव) उत्पन्न करते हैं और न विकृति पैदा करते हैं। उनके प्रति जो द्वेष और ममत्व रखता है, उनमें मोह के कारण वही विकृति को प्राप्त होता है / 102. कोहंच माणंच तहेव मायं लोहं छपरई रहुंच। हासं भयं सोगपुमिस्थिवेयं नपुंसवेयं विविहे य भावे / / [102] क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद तथा (हर्ष, विषाद आदि) विविध भावों को 103. आवज्जई एवमणेगरूवे एवंविहे कामगुणेसु सत्तो। अन्ने य एयप्पभवे विसेसे कारुण्णदोणे हिरिमे वइस्से // [103] अनेक प्रकार के विकारों को तथा उनसे उत्पन्न अन्य अनेक कुपरिणामों को वह प्राप्त होता है, जो कामगुणों में आसक्त है और वह करुणास्पद, दीन, लज्जित और अप्रिय होता है। विवेचन-शंका : समाधान प्रस्तुत 4 गाथाओं में पुनरुक्ति करके भी शिष्य की इन शंकानों का समाधान किया है ---(1) इन्द्रिय और मन के विषयों के विद्यमान रहते मनुष्य को वीतरागता तथा तज्जनित दुःखमुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ? (2) कामभोगों के रहते भी मनुष्य वीतराग, विकृतिरहित तथा दु:खमुक्त कैसे हो सकता है ? समाधान यह है कि (3) रागी मनुष्य के लिए इन्द्रियों और मन के विषय दुःख के हेतु हैं, वीतरागी के लिए नहीं, (4) कामभोगों के प्रति भी जो राग-द्वेष, मोह करते हैं, उनके लिए वे विकृतिकारी-दुःखोत्पादक हैं। अति-कामासक्त ही कषाय-नोकषाय आदि विकृतियाँ घेरती हैं। जो कामभोगों के प्रति राग-द्वेष-मोह नहीं करते, उन वीतराग पुरुषों को ये विकृतियाँ नहीं घेरती, न ही दुःख प्राप्त होते हैं।' तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों के विषय तो बाह्य निमित्त मात्र बनते हैं। वस्तुतः दुःख का मूल कारण तो आत्मा की रागद्वेषमयी मनोवृत्तियाँ ही हैं। राग-द्वेषविहीन मुनि का इन्द्रिय विषय लेश. मात्र भी बिगाड़ नहीं कर सकते / 1. उत्तराध्ययन (गुजराती भाषान्तर भावनगर), पत्र 306-307 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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