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________________ बत्तीसवां अध्ययन : अप्रमावस्थान] [593 [14] भाव में अतृप्त तथा परिग्रह में प्रासक्त-उपसक्त व्यक्ति सन्तोष नहीं पाता / वह असन्तोष के दोष से दुःखी तथा लोभग्रस्त होकर दूसरों की वस्तु चुराता है। 95. तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो भावे अतित्तस्स परिग्गहे य / मायामुसं वड्डइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से // [15] भाव और परिग्रह में अतृप्त तथा तृष्णा से अभिभूत होकर वह दूसरे के भावों (मनोज्ञ-सद्भावों) का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसमें कपटप्रधान असत्य बढ़ता है / फिर भी (कपटप्रधान असत्य को अपनाने पर भी) वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता। 96. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरन्ते / एवं प्रदत्ताणि समाययन्तो भावे अतित्तो दुहिणो अणिस्सो / [16] असत्यप्रयोग के पूर्व एवं पश्चात् तथा असत्यप्रयोग काल में भी वह दुःखी होता है / उसका अन्त भी दुःखरूप होला है। इस प्रकार भाव में अतृप्त होकर वह चोरी करता है, दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। 97. भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो मुहं होज्ज कयाइ किंचि / तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं // [7] इस प्रकार (मनोज) भावों में अनुरक्त मनुष्य को कभी ओर कुछ भी सुख कहाँ से हो सकता है ? जिस (मनोज्ञ भाव को पाने) के लिए वह दुःख उठाता है, उसके उपभोग में भी तो क्लेश और दुःख ही होता है / 98. एमेव भावम्मि गनो पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुद्धचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे // [18] इसी प्रकार (जो अमनोज्ञ) भाव के प्रति द्वेष करता है, वह भी (उत्तरोत्तर) दुःखों को परम्परा को पाता है / द्वेषयुक्त चित्त से वह जिन (पाप-) कर्मों को संचित करता है, वे (पापकर्म) ही विपाक के समय में दुःखरूप बनते हैं। 99. भावे विरत्तो मणुप्रो विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण / न लिप्पई भवमझे वि सन्तो जलेण वा पोखरिणीपलासं / / [8] अतः (मनोज्ञ-अमनोज्ञ) भाव से विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी इन (पूर्वोक्त) दुखों की परम्परा से (वैसे ही) लिप्त नहीं होता, जैसे (जलाशय में) कमलिनी का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता। विवेचन–मनोज्ञ-अमनोज्ञ भावों के प्रति वीतरागता---प्रस्तुत 13 गाथाओं (87 से 6E तक) में मन के द्वारा किसी घटना या पदार्थ के निमित्त से उठने वाले राग और द्वेष के भावों के प्रति वीतरागता का पाठ पढ़ाया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी पदार्थ, घटना या विचार के साथ मन में उठने वाले मनोज्ञ या अमनोज्ञ भाव को मत जोड़ो, अन्यथा रागद्वेष पैदा होगा, मन दुःखी, संक्लिष्ट और तनाव से परिपूर्ण हो जाएगा, भय, पीड़ा, संताप आदि अशुभ कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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