________________ 592] [उत्तराध्ययनसूत्र कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं (और) जो भाव द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं / जो इन दोनों (मनोज्ञ-अमनोज्ञ भावों) में सम (राग-द्वेष से दूर) रहता है, वह वीतराग है। 88. भावस्स मणं गहणं वयन्ति मणस्स मावं गहणं वयन्ति / __ रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेलं. अमणुन्नमाहु / [88] मन भाव का ग्राहक है, और भाव मन का ग्राह्य (विषय) है / जो राग का हेतु है, उसे 'समनोज्ञ' (भाव) कहते हैं और जो द्वेष का हेतु है, उसे अमनोज्ञ (भाव) कहते हैं। 89. भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिब्वं अकालियं पावइ से विणासं / __रागाउरे कामगुणेसु गिद्ध करेणुमग्गावहिए व नागे / / [86] जो मनोज्ञ भावों में तीव्र प्रासक्ति रखता है. वह अकाल में (वैसे) ही विनाश को प्राप्त होता है-जैसे हथिनी के प्रति आकृष्ट रागातुर कामगुणों में आसक्त हाथी (विनाश को प्राप्त होता है।) 90. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं / दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू न किंचि भावं प्रवरज्झई से / / - [60] (इसी तरह) जो (अमनोज्ञ भावों के प्रति) तीव्र द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दमनीय द्वेष के कारण दुःखी होता है / इसमें भाव का कोई अपराध नहीं है। 91. एगन्तरत्ते रुइरंसि भावे अतालिसे से कुणई पओसं / दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो।। [61] जो मनुष्य मनोज्ञ (प्रिय एवं रुचिकर) भाव में एकान्त अासक्त होता है, तथा इसके विपरीत अमनोज्ञ भाव के प्रति द्वेष करता है, वह अज्ञानी, दुःखजनित पीड़ा (अथवा दु:खपिण्ड) को प्राप्त होता है / विरागी मुनि इस कारण उन (दोनों) में लिप्त नहीं होता। 92. भावाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे / चित्तेहि ते परितावेइ बाले पोलेइ अत्तद्वगुरू किलिखें। [62] मनोज्ञ भावों को प्राशा के पीछे दौड़नेवाला व्यक्ति अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर जीवों का घात करता है। अपने ही स्वार्थ को महत्त्व देने वाला वह क्लिष्ट अज्ञानी जीव उन्हें अनेक प्रकार से परिताप देता है और पीड़ा पहुँचाता है। 93. भावाणुवाएण परिग्गहेण उपायणे रक्खणसन्निओगे। / संभोगकालेय अतित्तिलाभ। [13] प्रिय भाव में अनुराग और ममत्व के कारण, उसके उत्पादन, सुरक्षण, सन्नियोग, व्यय और वियोग में उसे सुख कैसे हो सकता है ? उसे तो उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती ! 94. भावे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुद्धि / अतुट्टिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org