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________________ 588 उत्तराध्ययनसून 64. जे यावि दोस समुवेइ तिव्वं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं / दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू रसं न किंचि अवरज्झई से / [64] (इसी प्रकार) जो अमनोज्ञ रस के प्रति तीव्र द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दमनीय द्वेष के कारण दुःखी होता है। इसमें रस का कोई अपराध नहीं है / 65. एगन्तरत्ते रुइरे रसम्मि अतालिसे से कुणई पओसं / दुक्खस्स संपीलमुवेई बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो / [65] जो व्यक्ति रुचिकर रस (स्वाद) में अत्यन्त आसक्त हो जाता है और अरुचिकर रस के प्रति द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखात्मक पीड़ा को (अथवा दुःखसंघात को) प्राप्त करता है। इसी कारण (मनोज-अमनोज्ञ रसों से) विरक्त (बीतद्वेष) मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। 66. रसाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिसइ ऽगरूवे / चित्तेहि ते परितावेइ बाले पोलेइ अत्तगुरू किलिट्ठ // [66] रसों (मनोज्ञ रसों) की इच्छा के पीछे चलने वाला अनेक प्रकार के स-स्थावर जीवों का घात करता है / अपने स्वार्थ को ही गुरुतर मानने वाला क्लिष्ट (रागादिपीड़ित) अज्ञानी उन्हें विविध प्रकार से परितप्त करता है और पीड़ा पहुँचाता है। 67. रसाणुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विनोगे य कहिं सुहं से ? संभोगकाले य अतित्तिलाभे // [67] रस में अनुराग और परिग्रह (ममत्व) के कारण (उसके) उत्पादन, रक्षण और सन्नियोग में, तथा व्यय और वियोग होने पर उसे सुख कैसे हो सकता है ? उपभोगकाल में भी उसे तृप्ति नहीं मिलती। 68. रसे प्रतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्टि / अतुढिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं / / 168] रस में अतृप्त और उसके परिग्रह में आसक्त-उपसक्त (रचा पचा रहने वाला) व्यक्ति * सन्तोष नहीं पाता / वह असन्तोष के दोष से दुःखी तथा लोभ ग्रस्त होकर दूसरों के (रसवान्) पदार्थों को चुराता है। 69. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो रसे अतित्तस्स परिग्गहे य / __ मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तस्थावि दुक्खा न विमुच्चई से // [66] रस और (उसके) परिग्रह में अतृप्त तथा (रसवान् पदार्थों की) तृष्णा से अभिभूत (बाधित) व्यक्ति दूसरों के (सरस) पदार्थों का अपहरण करता है / लोभ के दोष से उसमें कपटयुक्त असत्य (दम्भ) बढ़ जाता हैं / इतने (कूट कपट करने) पर भी वह दुःख से विमुख नहीं होता। 70. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दूरन्ते / ___ एवं अदत्ताणि समाययन्तो रसे अतितो दुहिओ अणिस्सो॥ [70] असत्य-प्रयोग से पूर्व और पश्चात् तथा उसके प्रयोगकाल में भी वह दुःखी होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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