________________ बत्तीसवाँ अध्ययन : अप्रमावस्थान] [589 उसका अन्त भी बुरा होता है / इस प्रकार रस में अतृप्त होकर चोरी करने वाला वह दुःखित और अाश्रयरहित हो जाता है / 71. रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किचि? / तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं // [71] इस प्रकार (मनोज्ञ) रस में अनुरक्त पुरुष को कदाचित् भी, कुछ भी सुख कहाँ से हो सकता है ? जिसे पाने के लिये व्यक्ति दुःख उठाता है, उसके उपभोग में भी (उसे) क्लेश और दुःख हो होता है। 72. एमेव रसम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पट्टचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे / [72] इसी प्रकार (अमनोज्ञ) रस के प्रति द्वष रखने वाला व्यक्ति उत्तरोत्तर दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है / वह द्वेषग्रस्त चित्त से जिन (पाप-) कर्मों का संचय करता है, वे ही विपाक के समय दुःख रूप बन जाते हैं / 73. रसे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण / न लिप्पई भवमझे वि सन्तो जलेण वा पोखरिणीयलासं // (73] रस से विरक्त मनुष्य शोक रहित होता है / वह संसार में रहता हुआ भी इस दुःखसमूह की परम्परा से लिप्त नहीं होता—जैसे कि (जलाशय में) कमलिनी का पत्ता जल से (लिप्त नहीं होता। विवेचन–रसो के प्रति वीतरागता को त्रयोदशसूत्री-६१ से 73 तक तेरह गाथाओं में शास्त्रकार ने विविध पहलुओं से मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों के प्रति रागद्वेष से मुक्त रहने का उपदेश दिया है, लक्ष्य वही सर्वथा सुखप्राप्ति एवं सर्व दु:खमुक्ति है / भाव एवं शब्दावली प्रायः समान है। मनोज्ञ-अमनोज्ञ-स्पर्शों के प्रति रागद्वषमुक्ति का उपदेश 74. कायस्स फासं गहणं वयन्ति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु / तं दोसहेउं अभणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो।। [74] काय के ग्राह्य विषय को स्पर्श कहते हैं / जो स्पर्श राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं। और जो स्पर्श द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं / जो इन दोनों (मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों) में सम (राग-द्वेष से दूर) रहता है , वह वीतराग है / 75. फासस्स कायं गहणं वयन्ति कायस्स फासं गहणं बयन्ति / रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुनमाहु / [75] काय स्पर्श का ग्राहक है और स्पर्श काय का ग्राह्य विषय है / जो राग का हेतु है, उसे समनोज्ञ कहा गया है और जो द्वेष का हेतु है, उसे अमनोज्ञ कहा गया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org