________________ बत्तीसवाँ अध्ययन : अप्रमादस्थान] [587 [56] इसी प्रकार जो (अमनोज्ञ) गन्ध के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर दुःखसमूह की परम्परा को प्राप्त होता है / वह द्वेषयुक्त चित्त से जिन (पाप-) कर्मों का संचय करता है, वे ही (कर्म) विपाक (फलभोग) के समय उसके लिए दुःखरूप बनते हैं। 60. गन्धे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण / न लिप्पई भवमझे वि सन्तो जलेण वा पोक्खरिणी-पलासं // [60] गन्ध से विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुअा भी इस (उपर्युक्त) दुःखों की परम्परा से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जिस प्रकार (जलाशय में) कमलिनी का पत्ता जल से (लिप्त नहीं होता)। विवेचन--गन्ध के प्रति वीतरागता-४८ से 60 तक तेरह गाथाओं में शास्त्रकार ने रूप की तरह मनोज्ञ-अमनोज्ञ गन्ध के प्रति राग-द्वेष से दूर रहने का निर्देश सर्व-दुःखमुक्ति एवं परमसुखप्राप्ति के सन्दर्भ में किया है / गाथाएँ प्रायः पूर्व गाथाओं के समान हैं / केवल 'रूप' एवं 'चक्षु' के स्थान में 'गन्ध' एवं 'घ्राण' शब्द का प्रयोग किया गया है / ___ ओसहिगंधसिद्ध सप्पे-यहाँ उपमा देकर बताया गया है कि सुगन्ध में आसक्ति पुरुष के लिए वैसी ही विनाशकारिणो है, जैसी कि ओषधि को गन्ध में सर्प की आसक्ति / वृत्तिकार ने ओषधि शब्द से 'नागदमनी' आदि ओषधियाँ (जड़ियाँ) सूचित की हैं / ' मनोज्ञ-अमनोज रस के प्रति राग-द्वेषमुक्त होने का निर्देश 61. जिब्भाए रसं गहणं वयन्ति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु / तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स बीयरागो।। [61] जिह्वा के ग्राह्य विषय को रस कहते हैं / जो रस राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो रस द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। इन दोनों (मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों) में जो सम (राग-द्वेषरहित) रहता है, वह वीतराग है / 62. रसस्स जिम्भं गहणं वयन्ति जिब्भाए रसं गहणं वयन्ति / रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु // [62] जिह्वा को रस की ग्राहक कहते हैं, (और) रस को जिह्वा का ग्राह्य (विषय) कहते हैं / जो राग का हेतु है. उसे समनोज्ञ कहा है और जो द्वेष का हेतु है, उसे अमनोज्ञ कहा है। 63. रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे वडिसविभिन्नकाए मच्छे जहा आमिसभोगगिद्ध // _ [63] जो (मनोज्ञ) रसों में तीव्र आसक्ति रखता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है / जैसे मांस खाने में आसक्त रागातुर मत्स्य का शरीर कांटे से बिंध जाता है / 1. वहद्वत्ति, पत्र 624 : 'तथौषधयो---नागदमन्यादिकाः / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org