________________ 586] [उत्तराध्ययनसूत्र 53. गन्धाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे / चित्तेहि ते परितावेइ बाले पोलेइ अत्तगुरू किलिट्ठ / [53] गन्ध (सुगन्ध) की आशा का अनुसरण करने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार के चराचर (त्रस और स्थावर) जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही महत्त्व देने वाला क्लिष्ट (रादिपीड़ित) अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, और पीड़ा पहुँचाता है / 54. गन्धाणुवाएण परिग्गहेण उपायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलामे // [54] गन्ध के प्रति अनुराग और ममत्व के कारण गन्ध के उत्पादन, संरक्षण और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में सूख कहाँ ? उसके उपभोग-काल में भी तृप्ति नहीं मिलती। 55. गन्धे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुद्धि / अतुढिदोसेण दुही परस्स लोभाविले प्राययई अदत्तं / / [55] गन्ध में अतृप्त और उसके परिग्रहण में प्रासक्त तथा उपसक्त व्यक्ति सन्तुष्टि नहीं पाता, वह असन्तोष के दोष से दुःखी लोभाविष्ट व्यक्ति दूसरे के द्वारा बिना दी हुई वस्तुएँ ग्रहण कर लेता है। 56. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो गन्धे प्रतित्तस्स परिग्गहे य / मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से / [56] गन्ध और उसके परिग्रहण में अतृप्त तथा तृष्णा से अभिभूत व्यक्ति (दूसरे की) बिना दी हुई वस्तुओं का अपहरण करता है / लोभ के दोष से उसका कपटप्रधान असत्य बढ़ जाता है / इतना करने (कपटप्रधान झूठ बोलने) पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता। 57. मोसस्स पच्छा य पुरस्थओ य पओगकाले य दुही दुरन्ते / एवं अदत्ताणि समाययन्तो गन्धे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥ [57] असत्य-प्रयोग के पूर्व और पश्चात् तथा प्रयोग-काल में वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी बुरा होता है / इस प्रकार गन्ध से अतृप्त होकर (सुगन्धित पदार्थों की) चोरी करने वाला व्यक्ति दुःखित और निराश्रित हो जाता है। 58. गन्धाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किचि ? / तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं / / (58] इस प्रकार सुगन्ध में अनुरक्त व्यक्ति को कदापि कुछ भी सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? वह जिस (गन्ध को पाने के लिए दुःख उठाता है, उसके उपभोग में भी उसे क्लेश और दुःख (ही) होता है। 59. एमेव गन्धम्मि गनो पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराम्रो / पदुद्धचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org