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________________ बतीसवाँ अध्ययन : अप्रमादस्थान] [585 विवेचन–शब्द के प्रति त्रयोदश सूत्री वीतरागता का निर्देश-गाथा 35 से 47 तक तेरह गाथानों में रूप की तरह शब्द के प्रति रागद्वेष से मुक्त होने का निर्देश किया गया है। गाथाएँ प्रायः समान हैं / 'रूप' के स्थान में 'शब्द' और 'चक्षु' के स्थान में 'श्रोत्र' का प्रयोग किया गया है / हरिणमिगे-'हरिण' और 'मृग' ये दोनों शब्द समानार्थक हैं, तथापि मृग शब्द अनेकार्थक होने से यहाँ उसे 'पशु' अर्थ में समझना चाहिए। मृग शब्द के अर्थ होते हैं—पशु, मृगशीर्षनक्षत्र, हाथी की एक जाति, हरिण आदि / ' मनोज्ञ-अमनोज्ञ गन्ध के प्रति राग-द्वेष मुक्त रहने का निर्देश 48. घाणस्स गन्धं गहणं वयन्ति तं रागहे तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं प्रमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो॥ |48] घ्राण (नासिका) के ग्राह्य विषय को गन्ध कहते हैं, जो गन्ध राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं, और जो गन्ध द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। जो इन दोनों में सम (न रागी है, न द्वेषी) है उसे वीतराग कहते हैं। 49. गन्धस्स घाणं गहणं वयन्ति घाणस्स गन्धं गहणं वयन्ति / रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु // [46] घ्राण को गन्ध का ग्राहक कहते हैं, और गन्ध को घ्राण का ग्राह्य-विषय कहते हैं। जो राग का कारण है, उसे समनोज्ञ कहते हैं, तथा जो द्वेष का कारण है उसे अमनोज्ञ कहते हैं। 50. गन्धेसु जो गिद्धिमुवेइ तिब्वं अकालियं पावइ से विणासं / रागाउरे ओसहिगन्धगिद्ध सप्पे बिलायो विव निक्खमन्ते / / [50] जो मनोज्ञ गन्धों में तीव्र प्रासक्ति रखता है, वह अकाल में हो विनाश को प्राप्त होता है। जैसे प्रोषधि की गन्ध में प्रासक्त रागातुर सर्प बिल से निकल कर विनाश को प्राप्त होता है। 51. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं / दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू न किंचि गन्धं अवरज्झई से // [51] जो अमनोज्ञ गन्धों के प्रति तीव द्वेष रखता है, वह जीव उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष के कारण दु:ख पाता है / इसमें गन्ध उसका कुछ भी अपराध नहीं करता। 52. एगन्तरत्ते रुइरंसि गन्धे अतालिसे से कुणई पओसं / दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणो विरागो॥ [52] जो सुरभिगन्ध में एकान्त रक्त (प्रासक्त) होता है, और दुर्गन्ध के प्रति द्वेष करता है, वह मूढ़ दुःखसमूह को प्राप्त होता है। अतः वीतराग-समभावी मुनि उनमें (मनोज्ञ-अमनोज्ञ-गन्ध में) लिप्त नहीं होता। 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 634 : मृगः सर्वोऽपि पशुरुच्यते, यदुक्त-मृगशीर्षे हस्तिजाती मृगः पशुकुरङ्गयोः / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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