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________________ 524] [उत्तराध्ययनसूत्र 42. सद्दे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुद्धि / अतुट्ठिदोसेण बुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं // [42] शब्द में अतृप्त, और उसके परिग्रहण (ममत्वपूर्वक ग्रहण-संग्रहण) में जो आसक्त और उपसक्त (गाढ़ प्रासक्त) होता है, उस व्यक्ति को संतोष प्राप्त नहीं होता। असंतोष के दोष से दुःखी एवं लोभाविष्ट मनुष्य दूसरे की शब्दवान् वस्तुएँ बिना दिये ग्रहण कर लेता है / 43. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य। ___ मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से // [43] शब्द और उसके परिग्रहण में अतृप्त, तथा तृष्णा से अभिभूत व्यक्ति (दूसरे की) बिना दी हुई (शब्दवान्) वस्तुओं का अपहरण करता है / लोभ के दोष से उसका मायासहित झूठ बढ़ता है। ऐसा (कपट प्रधान असत्य का प्रयोग) करने पर भी वह दःख से विमुक्त नहीं होता। 44. मोसस्स पच्छा य पुरस्थओ य पोगकाले य दुही दुरन्ते / एवं अदत्ताणि समाययन्तो सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो // [44] असत्याचरण के पहले और पीछे तथा प्रयोगकाल अर्थात् बोलने के समय भी वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखरूप होता है। इसी प्रकार शब्द में अतृप्त व्यक्ति चोरी करता हुआ दुःखित और प्राथयहीन हो जाता है / 45. सद्दाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्जक्याइ किचि ? / तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं // [45] इस प्रकार शब्द में अनुरक्त व्यक्ति को कदाचित् कुछ भी सुख कहाँ से होगा? अर्थात् कभी भी किञ्चित् भी सुख नहीं होता। जिस (मनोज्ञ शब्द) को पाने के लिए व्यक्ति दुःख उठाला है, उसके उपभोग में भी अतृप्ति का क्लेश और दुःख ही रहता है / 46. एमेव सम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥ [46] इसी प्रकार जो (अमनोज्ञ) शब्द के प्रति द्वेष करता है, वह भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से वह जिन कर्मों का संचय करता है, वे ही पुनः विपाक (फलभोग) के समय में दुःख के कारण बनते हैं। 47. सद्दे विरत्तो मणुप्रो विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण / न लिप्पए भवमझे वि सन्तो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं // [47] शब्द से विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी इस दुःखसमूह की परम्परा से उसी तरह लिप्त नहीं होता, जिस तरह कमलिनी का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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