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________________ बत्तीसवां अध्ययन : अप्रमादस्थान] [583 कहा जाता है, और जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो इन दोनों (मनोज्ञअमनोज्ञ शब्दों) में सम रहता है, वह वीतराग है। 36. सहस्स सोयं गहणं वयन्ति सोयस्स सई गहणं वयन्ति / __रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु / / [36] श्रोत्र को शब्द का ग्राहक कहते हैं, और शब्द श्रोत्र का ग्राह्य विषय है / जो राग का कारण है, उसे समनोज्ञ कहा है, और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहा है / 37. सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं / रागाउरे हरिणमिगे ध मुद्ध सद्दे प्रतित्ते समुवेइ मच्चु॥ [37] जो (मनोज्ञ) शब्दों के प्रति तीव्र प्रासक्ति रखता है, वह रागातुर अकाल में वैसे ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे शब्द में अतृप्त रागातुर मुग्ध हरिण-मृग मृत्यु को प्राप्त होता है / 38. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं / दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू न किंचि सई अवरज्झई से // {38] (इसी तरह) जो (अमनोज्ञ शब्दों के प्रति) तीव्र द्वेष करता है, वह प्राणी उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष के कारण दुःख पाता है / (इसमें) शब्द का कोई अपराध नहीं है / 39. एगन्तरत्ते रुइरंसि सद्दे अतालिसे से कुणई पओसं / ___ दुक्खस्स संपोलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥ [36] जो रुचिर (मनोज्ञ) शब्द में एकान्त रक्त (-पासक्त) होता है, और अतादृश (-अमनोज्ञ) शब्द में प्रद्वेष करता है, वह मूढ़ दुःखसमूह को प्राप्त होता है। इस कारण विरक्त मुनि उनमें (मनोज-अमनोज्ञ शब्द में) लिप्त नहीं होता। 40. सद्दाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिसइ ऽणेगरूवे / चित्तेहि ते परियावेइ बाले पोलेइ अत्तद्वगुरू किलिट्ठ // [40] मनोज्ञ शब्द की प्राशा (स्पृहा) का अनुसरण करने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार के चराचर (त्रस-स्थावर) जीवों की हिंसा करता है। अपने ही प्रयोजन को मुख्यता देने वाला क्लिष्ट (रागादिबाधित) अज्ञानी नाना प्रकार से उन (चराचर) जीवों को परिताप देता और पोड़ा पहुँचाता है। 41. सद्दाणुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खण-सन्निप्रोगे। __ वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे॥ [41] शब्द में अनुराग और परिग्रह (ममत्वबुद्धि) के कारण उसके उत्पादन में, संरक्षण में, सन्नियोग में तथा उसके व्यय और वियोग में, उसको सुख कहाँ ? उसे उपभोगकाल में भी अतृप्ति ही मिलती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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