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________________ 582] [उत्तराध्ययनसूत्र गहणं-गाथा 22 और 23 में गहणं (ग्रहण) शब्द तीन बार आया है। प्रशंगवश गाथा 22 में 'ग्रहण' शब्द का अर्थ- 'ग्राह्यविषय' होता है, तथा 23 वीं गाथा में प्रथम ‘ग्रहण' का अर्थ हैग्राहक और द्वितीय ग्रहण का अर्थ है -- ग्राह्यविषय' / ' रूप अपराधी नहीं-रूप को देख कर व्यक्ति ही राग या द्वेष करता है। इसमें यदि रूप का ही अपराध होता, तब तो व्यक्ति को रागद्वेषजनित कर्मबन्ध और उससे होने वाला जन्ममरणादि दुःख प्राप्त नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति झटपट मुक्त हो जाता। अतः व्यक्ति ही राग-द्वेष के प्रति उत्तरदायी है। दुक्खस्स संपीलं-(१) दुःखजनित पीड़ा-बाधा को अथवा-(२) दुःख के सम्पिण्ड-संघातसमूह को। अत्तगुरू किलिछे-अपने ही प्रयोजन को महत्ता–प्रधानता देने वाला,एवं क्लिष्ट अर्थात्--- रागद्वेषादि से पीड़ित / रूप में रागी-द्वेषी-रूप में ग्रासक्त या द्वेषग्रस्त मनुष्य रूपवान् वस्तु को प्राप्त करने और कुरूप वस्तु को दूर करने हेतु अनेक जीवों की हिंसा करता है, उन्हें विविध प्रकार से पीड़ा पहुँचाता है, झूठ बोलता है, अपहरण-चोरी करता है, ठगी करता है, स्त्री के रूप में आसक्त होकर अब्रह्मचर्यसेवन करता है, ममत्वपूर्वक संग्रह करता है, किन्तु फिर भी अतृप्त रहता है। उसके उपार्जन, संरक्षण, उपभोग, व्यय एवं वियोग आदि में दुःखी होता है, इतना सब कुछ पाप करने पर भी वह न यहाँ सुखी होता है, न परलोक में / रूप के प्रति रागद्वेषवश वह अनेक पापकर्मों का उपार्जन करके फलभोग के समय नाना दुःख उठाता है, जन्म-मरण की परम्परा बढ़ाता है। यही गाथा 27 से 33 तक का निष्कर्ष है। विरक्त ही दुःख-शोकरहित एवं अलिप्त--जो रूप के प्रति राग या द्वेष नहीं करता, वह न यहाँ शोक या दुःख से ग्रस्त होता है, और न परलोक में हो / क्योंकि वह जन्म-मरणादि रूप दुःख की परम्परा को बढ़ाता नहीं है। मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों के प्रति रागद्वेष-मुक्त रहने का निर्देश 35. सोयस्स सदं गहणं वयन्ति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु / तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो।। [35] श्रोत्र के ग्राह्य विषय को शब्द कहते हैं, जो (शब्द) राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ 1. ....... अनेन रूपचक्षुषोाह्यग्राहकभाव उक्तः / - बृहदत्ति, पत्र 628 2. ....... यदि बक्षू रागद्वेषकारणं, न कश्चिद् वीतरागः स्यादत आह–'समो य जो तेसु स वीयरागो।' -वही, पत्र 629 3. दुःखस्य सम्पिण्ड-संघात, यद्वा--समिति भृशं, पीड़ा-दुःखकृता बाधा सम्पीडा। - बहवत्ति, पत्र 629 4. प्रात्मार्थ गुरु:-स्वप्रयोजननिष्ठः क्लिष्टः रागबाधितः / -वही, पत्र 629 5. उत्तरा, मूलपाठ तथा बृहद्वृत्ति, प्र. 32, गा. 27 से 33 तक, पत्र 630-631 6. बृहदवृत्ति, पत्र 631 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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