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________________ बत्तीसवाँ अध्ययन : अप्रमादस्थान] [581 31. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरन्ते / एवं अदत्ताणि समाययन्तो रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥ [31] झूठ बोलने से पहले और उसके पश्चात् तथा (झूठ) बोलने के समय में भी मनुष्य दुःखी होता है / उसका अन्त भी दुःखरूप होता है / इस प्रकार रूप से अतृप्त होकर वह अदत्त ग्रहण (चोरी) करने वाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है / 32. रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किचि ? / तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं // [32] इस प्रकार रूप में प्रासक्त मनुष्य को कदापि किंचित् भी सुख कैसे प्राप्त होगा ? जिसको (पाने के लिए मनुष्य दुःख उठाता है, उसके उपभोग में भी वह क्लेश और दुःख ही उठाता है। 33. एमेव रूवम्मि गओ पओसं उबेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे / [33] इसी प्रकार रूप के प्रति द्वेष को प्राप्त मनुष्य भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से (वह) जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। 34. रूवे, विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण / न लिप्पए भवमझे वि सन्तो जलेण वा पोक्खरिणोपलासं // [34] रूप में विरक्त (उपलक्षण से द्वेषरहित) मनुष्य (राग-द्वेषरूप कारण के अभाव में) शोकरहित होता है / वह संसार में रहता हुआ भी दुःख-समूह की परम्परा से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जिस प्रकार जलाशय में रहता हग्रा भी कमलिनी का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता। विवेचन-समाहिकामे--प्रसंगवश 'समाधिकाम' शब्द का प्राशय है---जो श्रमण रागद्वेषादि का उन्मूलन करना चाहता है; क्योंकि समाधि का अर्थ है ---चित्त की एकाग्रता या स्वस्थता, वह रागद्वेषादि के रहते हो नहीं सकती।' न. " मणं पि कुज्जा : फलितार्थ-प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि मनोज्ञ विषयों के प्रति भाव न करे और अमनोज्ञ के प्रति मन भी न करे। इसका तात्पर्य यह है कि मनोज्ञ के प्रति रागभाव और अमनोज्ञ के प्रति द्वेषभाव न करे। जब मन से भी विषयों के प्रति विचार करने का निषेध किया है, तब फलितार्थ यह निकलता है कि इन्द्रियों से विषयों में प्रवृत्त होना तो दूर रहा / / 1. "समाधिः चित्त काग्र्यं, स च रागद्वषाभाव एवेति,....."ततस्तत्कामो रागद्वेषोद्धरणाभिलाषी...."" -बृहद्वृत्ति, पत्र 628 2. ......."अपेर्गम्यमानत्वात् भावमपि, प्रस्तावादिन्द्रियाणि प्रवर्तयितुम् / कि पुनस्तत् प्रवर्तनमित्यपि शब्दार्थः / ___....."अत्रापीन्द्रियाणि प्रवत्तं यितुम् / अघि शब्दार्थश्च प्राग्वत्। -बृहद्वृत्ति, पत्र 628 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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