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________________ 580] [उत्तराध्ययनसूत्र 25. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं / दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू न किंचि एवं अवरज्झई से / [25] (इसी प्रकार) जो (अमनोज्ञरूप के प्रति) द्वेष करता है, वह अपने दुर्दान्त (अत्यन्त प्रचण्ड) द्वेष के कारण उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। इसमें रूप का कोई अपराध-दोष नहीं है। 26. एगन्तरत्ते रुइरंसि रूबे प्रतालिसे से कुणई परोस / दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥ [26] जो रुचिर (सुन्दर) रूप में एकान्त रक्त (प्रासक्त) होता है और प्रतादृश रूप (कुरूप) के प्रति प्रद्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख के समूह को प्राप्त होता है। परन्तु वीतराग मुनि उस (रूप) में लिप्त नहीं होता। 27. रूवाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिसइ ऽणेगरूवे / चित्तेहि ते परितावेइ बाले पोलेइ अत्तद्वगुरू किलिट्ठ। [27] मनोज्ञ रूप की आशा (लालसा) का अनुसरण करने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार के चराचर (त्रस और स्थावर) जीवों की हिंसा करता है, तथा वह मूढ़ नाना प्रकार (के उपायों) से उन्हें (बस-स्थावर जीवों को) परिताप देता है; और अपने ही प्रयोजन को महत्व देने वाला क्लिष्टपरिणामी (राग-बाधित) वह (व्यक्ति उन जीवों को) पीड़ा पहुँचाता है / 28. रूवाणुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे य कहिं सुहं से ? संभोगकाले य अतित्तिलाभे // (28] (मनोज्ञ) रूप के प्रति अनुपात (-अनुराग) और परिग्रह (ममत्व) के कारण, (मनोज्ञ रूप के) उत्पादन (उपार्जन) में, संरक्षण में, सन्नियोग (स्वपरप्रयोजनवश उसका सम्यक उपयोग करने) में, (उसके) व्यय में, तथा वियोग में सुख कहाँ ? (इतना ही नहीं,) उसके उपभोगकाल में भी तृप्ति नहीं मिलती।। 29. रूवे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोबसत्तो न उवेइ तुट्टि। __ अतुद्विदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई प्रदत्तं // [26] रूप में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त (-अत्यन्त आसक्त) व्यक्ति सन्तोष को प्राप्त नहीं होता। वह असन्तोष के दोष से दुःखो एवं लोभ से प्राविल (-कलुषित या व्याकुल) व्यक्ति दूसरे की अदत्त (नहीं दी हुई) वस्तु ग्रहण करता (चुराता) है। 30. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो रूवे प्रतितस्स परिग्गहे य / __ माया-मुसं वड्डइ लोभदोसा तत्थाऽवि दुक्खा न विमुच्चई से // [30] जो तृष्णा से अभिभूत है, रूप और परिग्रह में अतृप्त वह दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है। परन्तु इतने पर भी वह दुःख से विमुक्त नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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