________________ बत्तीसवाँ अध्ययन : अप्रमादस्थान] [579 कामभोगों का स्वरूप और सेवन का कटुपरिणाम-२० वी गाथा में कामभोगों की किम्पाकफल से तुलना करते हए उनके घातक परिणाम बता कर साधकों को उनसे बचने का परामर्श दिया है। फलितार्थ यह है कि यदि एक बार भी साधक कामभोगों के चक्कर में फंस गया तो फिर दीर्घकाल तक जन्म-मरणजन्य दुःखों को भोगना पड़ेगा।' __ खुड्डए : दो अर्थ-(१) क्षुद्र जीवन अथवा खुन्दति-विनाश कर देता है।' मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपों में रागद्वेष से दूर रहे 21. जे इन्दियाणं विसया मणुन्ना न तेसु भावं निसिरे कयाइ / न याऽमणुन्नेसु मणं पि कुज्जा समाहिकामे समणे तवस्सी। [21] समाधि की भावना वाला तपस्वी श्रमण, जो इन्द्रियों के (शब्दरूपादि) मनोज्ञ विषय हैं, उनमें कदापि राग (भाव) न करे; तथा (इन्द्रियों के) अमनोज्ञ विषयों में मन (से) भी द्वेषभाव न करे। 22. चक्खुस्स रूवं गहणं वयन्ति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेलं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु य वीयरागो॥ [22] चक्षु का ग्राह्यविषय रूप है। जो रूप राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो रूप द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। इन दोनों (मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपों) में जो सम (न रागी, न द्वेषी) रहता है, वह वीतराग है। 23. रूवस्स चक्खु गहणं वयन्ति चक्खुस्स एवं गहणं वयन्ति / रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेडं अमणुन्नमाहु / / [23] चक्षु को रूप का ग्रहण (ग्राहक) कहते हैं, रूप को चक्षु का ग्राह्य विषय कहते हैं / जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं, और जो द्वेष का कारण है उसे अमनोज्ञ कहते हैं / 24. रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिन्वं अकालियं पावइ से विणासं / रागाउरे से जह वा पयंगे पालोयलोले समुवेइ मच्चु॥ [24] जो (मनोज्ञ) रूपों में तीव्र गृद्धि (प्रासक्ति) रखता है, वह रागातुर मनुष्य अकाल में वैसे ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे प्रकाश-लोलुप पतंग (प्रकाश के रूप में) रागातुर (आसक्त) होकर मृत्यु को प्राप्त होता है / 1. ...."यथा किम्पाकफलान्युपभुज्यमानानि मनोरमा नि, विपाकावस्थायां तु सोपक्रमायुषां मरणहेतुतयाऽ तिदारुणानि; एवं कामगुणा अपि उपभुज्यमाना मनोरमाः, विपाकावस्थायां तु नरकादिदुर्गतिदुःखदायितया ऽतिदारुणानि एवं.....।" -बृहद्वृत्ति, पत्र 627 2. वही, पत्र 627 : क्षुद्रक---क्षोदयितु विनाशयितु शक्यते इति क्षुद्र-क्षद्रक-सोपक्रममित्यर्थः। जीवियं खन्दति पच्च माणं-जीवितं-पायुः खुन्दति-क्षोदयति-विनाशयतीति यावत् / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org