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________________ 578] [उत्तराध्ययनसूत्र लिए) शेष सारे संसर्गों का अतिक्रमण वैसे हो सुखोत्तर (सुख से पार करने योग्य) हो जाता है, जैसे कि महासागर को पार करने के बाद गंगा सरीखी नदी का पार करना आसान होता है। विवेचन–ब्रह्मचारी के लिए स्त्रीसंग सर्वथा त्याज्य--प्रस्तुत सात गाथाओं (12 से 18 तक) में रागद्वेषादि शत्रुओं को परास्त करने हेतु स्त्रीसंसर्ग से सदैव दूर रहने का संकेत किया है / अर्थात्ब्रह्मचारी को अपना आवासस्थान, अपना प्रासन, और अपना सम्पर्क स्त्रियों से रहित एकान्त में रखना चाहिए। यदि विविक्त स्थान में भी स्त्रियाँ आ जाएँ तो साधु को चाहिए कि वह उनके रूप, लावण्य, हास्य, मधुर आलाप, चेष्टा एवं कटाक्ष आदि को अपने चित्त में बिलकुल स्थान न दे, और न कामराग की दष्टि से उनकी ओर देखे, न चाहे, और न स्त्रीसम्बन्धी किसी प्रकार का चिन्तन या वर्णन करे ! स्त्रीसंग को पार कर लिया तो समझो महासागर पार कर लिया / इसलिए विविक्तवास पर अधिक भार दिया गया है।' निष्कर्ष जिस तपस्वी साधु का प्रावास और प्रासन विविक्त है, जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, और जो अल्पभोजी है, उसे सहसा रागादिशत्रु परास्त नहीं कर सकते / ' कामभोग : दुःखों के हेतु 19. कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स / जं काइयं माणसियं च किचि तस्सऽन्तगं गच्छइ वीयरागो।। [16] समग्र लोक के, यहाँ तक कि देवों के भी जो कुछ शारीरिक और मानसिक दुःख हैं, वे सब कामासक्ति से ही पैदा होते हैं / वीतराग आत्मा ही उन दुःखों का अन्त कर पाते हैं। 20. जहा य किपागफला मणोरमा रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा। ते खुड्डए जोविय पच्चमाणा एओवमा कामगुणा विवागे / [20] जैसे किम्पाकफल रस और रूपरंग की दृष्टि से (देखने और) खाने में मनोरम लगते हैं; किन्तु परिणाम (परिपाक) में वे सोपक्रम जीवन का अन्त कर देते हैं, कामगुण भी विपाक (अन्तिम परिणाम) में ऐसे ही (विनाशकारी) होते हैं। विवेचन-कामभोग परम्परा से दुःख के कारण-कामभोग बाहर से सुखकारक लगते हैं, तथा देवों को वे अधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं, इसलिए साधारण लोग यह समझते हैं कि देव अधिक सुखो हैं, किन्तु कामभोगों को अपनाते ही राग और द्वेष तथा मोह अवश्यम्भावी हैं। जहाँ ये तीनों शत्रु होते हैं, वहाँ इहलोक में शारीरिक-मानसिक दुःख होते ही हैं, तथा इनके कारण अशुभकर्मों का बन्ध होने से नरकादिदुर्गतियों में जन्ममरण-परम्परा का दीर्घकालीनदुःख भी भोगना पड़ता है। ये कामभोग सारे संसार को अपने लपेटे में लिये हुए हैं। इन सब दुःखों का अन्त तभी हो सकता है, जब व्यक्ति कामासक्ति से दूर रहे, वीतरागता को अपनाए। इसीलिए कहा गया है-"तस्संऽतगं गच्छइ वीयरागो।"3 --- ब दवत्ति, पत्र 627 का सारांश. 2. बृहद्वत्ति, पत्र 627 3. बृहद्वृत्ति, पत्र 627 : "कायिक दुःखं-रोगादि, मानसिकं च इष्टवियोगजन्यं / " ------ : ----- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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