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________________ बत्तीसवां अध्ययन : अप्रमादस्थान] [577 प्रब्रह्मचर्यपोषक बातों का त्याग : द्वितीय उपाय 12. विवित्तसेज्जासणजन्तियाणं ओमासणाणं दमिइन्दियाणं। . न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं पराइओ बाहिरिवोसहेहिं / / [12] जो विविक्त (स्त्री आदि से असंसक्त) शय्यासन से नियंत्रित (नियमबद्ध) हैं, जो अल्पभोजी हैं, जो जितेन्द्रिय हैं, उनके चित्त को राम (-द्वेष) रूपी शत्रु पराभूत नहीं कर सकते, जैसे औषधों से पराजित (दबायी हुई) व्याधि शरीर को पुनः आक्रान्त नहीं कर सकती। 413. जहा बिरालावसहस्स मूले न मूसगाणं वसही पसत्था। एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे न बम्भयारिस्स खमो निवासो॥ [13] जैसे बिल्ली के निवासस्थान के पास चूहों का निवास प्रशस्त नहीं होता, इसी प्रकार स्त्रियों के निवासस्थान के मध्य (पास) में ब्रह्मचारी का निवास भी उचित नहीं है / 14. न रूव-लावण्ण-विलास-हासं न जंपियं इंगिय-पेहियं वा। इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता दठ्ठ ववस्से समणे तवस्सी // [14] श्रमण तपस्वी साधु स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, पालाप, इंगित (चेष्टा) और कटाक्ष वाले नयनों को मन में निविष्ट (स्थापित) करके देखने का अध्यवसाय (उद्यम) न करे / 15. अदंसणं चेव अपत्थणं च अचिन्तणं चेव अकित्तणं च / इत्थीजणस्सारियाणजोग्गं हियं सया बम्भवए रयाणं // [15] जो ब्रह्मचर्य में सदा रत हैं, उनके लिए स्त्रियों के सम्मुख अवलोकन न करना, उनकी इच्छा (या प्रार्थना) न करना, चिन्तन न करना, उनके नाम का कीर्तन (या वर्णन) न करना हितकर है, तथा आर्य (सम्यक्धर्म) ध्यान (आदि की साधना ) के लिए योग्य है। 16. कामं तु देवीहि विभूसियाहि न चाइया खोभइउ तिगुत्ता। तहा वि एगन्तहियं ति नच्चा विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो॥ [16] माना कि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनियों को (वस्त्रालंकारादि से) अलंकृत देवियाँ (अप्सराएँ) भी विक्षुब्ध नहीं कर सकती हैं, तथापि (भगवान् ने) एकान्त हित जान कर मुनि के लिए विविक्त (स्त्रीसम्पर्करहित एकान्त) वास प्रशस्त (कहा) है। 17. मोक्खाभिकखिस्स वि माणवस्स संसारभोरुस्स ठियस्स धम्मे / नेयारिसं दुत्तरमस्थि लोए जहित्थिओ बालमणोहरायो।। [17] मोक्षाभिकांक्षी, संसारभीरु और धर्म में स्थित मानव के लिए लोक में इतना दुस्तर कुछ भी नहीं है, जितनी कि अज्ञानियों के मन को हरण करने वाली स्त्रियाँ दुस्तर हैं। 18. एए य संगे समइक्कमित्ता सुहुत्तरा चेव भवन्ति सेसा / जहा महासागरमुत्तरित्ता नई भवे अवि गंगासमाणा॥ [18] इन (उपर्युक्त स्त्री-विषयक) संगों को सम्यक् अतिक्रमण (पार) करने पर (उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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