________________ 576] [उत्तराध्ययनसूत्र 10. रसा पगामं न निसेवियत्वा पायं रसा दित्तिकरा नराणं / दित्तं च कामा समभिवन्ति दुमं जहा साउफलं व पक्खी // [10] रसों का प्रकाम (अत्यधिक) सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि रस प्रायः साधक पुरुषों के लिए दृप्तिकर (-उन्माद को बढ़ाने वाले) होते हैं। उद्दीप्तकाम मनुष्य को काम (विषयभोग) वैसे ही उत्पीडित करते हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी। 11. जहा दवम्गी पउरिन्धणे वणे समारुनो नोवसमं उवेइ। एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो न बम्भयारिस्स हियाय कस्सई। [11] जैसे प्रचुर ईन्धन वाले वन में, प्रचण्ड वायु के साथ लगा हुआ दावानल उपशान्त नहीं होता, इसी प्रकार अतिमात्रा में भोजन करने वाले साधक की इन्द्रियाग्नि (इन्द्रियों से उत्पन्न हुई रागरूपी अग्नि) शान्त नहीं होती। किसी भी ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम भोजन कदापि हितकर नहीं होता। विवेचन प्रकाम रससेवन एवं अतिभोजन का निषेध-इन तीन गाथाओं में राग-द्वेषमोहवर्द्धक रसों एवं भोजन की अतिमात्रा का निषेध किया गया है। इनका फलितार्थ यह है कि रागद्वेष एवं मोह को जीतने से लिए ब्रह्मचारी को दुध, दही, घी ग्रादि रसों का तथा आहार का अतिमात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि रसों का अत्यधिक मात्रा में या बारबार सेवन करने से कामोद्रेक होता है, जिससे रागादिवृद्धि स्वाभाविक है / तथा अतिमात्रा में भोजन से धातु उद्दीप्त हो जाते हैं, प्रमाद बढ़ जाता है, शरीर पुष्ट, मांसल एवं सुन्दर होने पर राग, द्वेष, मोह का बढ़ना स्वाभाविक है / यहाँ रसों के सेवन करने का सर्वथा निषेध नहीं है। बृहद्वत्तिकार कहते हैं कि वात ग्रादि के प्रकोप के निवारणार्थ साधु के लिए रस-सेवन करना विहित है / एक मुनि ने कहा हैप्रत्याहार को मेरा शरीर सहन नहीं करता, अतिस्निग्ध पाहार से विषय (काय) उद्दीप्त होते हैं, इसलिए संयमी जीवनयात्रा चलाने के लिए उचित मात्रा में प्राहार करता हूँ, अतिमात्रा में भोजन नहीं करता। दित्तिकरा : दो अर्थ-(१) दृप्ति अर्थात् धातुओं का उद्रेक करने वाले,(२) दीप्ति-अर्थात्-.. मोहाग्नि-(कामाग्नि) को उद्दीप्त (उत्तेजित) करने वाला। इसी का फलितार्थ बताया गया है कि जिसकी धातुएँ या मोहाग्नि उद्दीप्त हो जाती है, उसे कामभोग धर दबाते हैं / निष्कर्ष-११ वी गाथा में प्रकाम भोजन के दोष बताकर उसे ब्रह्मचर्यघातक एवं ब्रह्मचारी के लिए त्याज्य बताया है। 1. (क) रसाः क्षीरादिविकृतयः / प्रकामग्रहणं तु बाताऽदिक्षोभनिवारणाय रसा अपि निषेवितव्या एवं निष्कारणसेवनस्य तु निषेध इति ख्यापनार्थम् / उक्त च 'अच्चाहारो न सहइ, अतिनिद्धण विसया उदिज्जति। जायामायाहारो, तं पि पगामं ण भजामि // ' –बहवत्ति, पत्र 625 2. दृप्तिः धातूद्र कस्तत्करणशीला दप्तिकराः, " ""यदि वा दीप्तं दीपनं मोहानलज्वलनमित्यर्थः, तत्करणशीला दीप्तिकराः। --वही, पत्र 625 3. वही, पत्र 626 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org