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________________ 574] [उत्तराध्ययनसूत्र 5. न वा लभेज्जा निउणं सहायं गुणाहियं वा गुणओ समं वा। एक्को वि पावाइ विवज्जयन्तो विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो // [5] यदि अपने से अधिक गुणों वाला अथवा अपने समान गुण वाला निपुण साथी न मिले तो पापों का वर्जन करता हुआ तथा कामभोगों में अनासक्त रहता हुअा अकेला ही विचरण करे। विवेचन–समाधि समाधि द्रव्य और भाव उभयरूप है। द्रव्यसमाधि है-दूध, शक्कर आदि द्रव्यों का परस्पर एकमेक होकर रहना, भावसमाधि है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों का अबाधितरूप से रहना / यहाँ भावसमाधि ही ग्राह्य है / तात्पर्य है, जो ज्ञानादिप्राप्तिरूप भावसमाधि चाहता है, उसके लिए शास्त्रकार ने तीन बातें रखो हैं--उसका आहार उसका सहायक एवं उसका प्रावासस्थान अमुक-अमुक गुणों से युक्त होना आवश्यक है / अगर उसका पाहार अतिमात्रा में हुआ या अनेषणीय हुप्रा तो वह ज्ञानादि में प्रमाद करेगा, चारित्रपालन में विघ्न उपस्थित होगा। अगर उसका साथी तत्त्वज्ञ या गीतार्थ नहीं हुआ तो ज्ञानादि प्राप्ति के स्रोत गुरुवृद्धसेवा आदि से उसे भ्रष्ट कर देगा। और उसका प्रावासस्थान स्त्री आदि से संसक्त रहा तो चित्तसमाधिभंग होने से गुरुवद्धसेवा प्रादि से दूर हो जाएगा।' सहायक गुणाधिक या गुणों में सम न मिले तो?-पूर्वगाथा में उल्लिखित तीन बातों में से दो का पालन तो साधक के स्वाधीन है. परन्तु योग्य साथी मिलना उसके वश की बात नहीं है। अगर ज्ञानादि गुणों में स्वयं अधिक योग्य या ज्ञानादिगुणों में सम साथी न मिले तो पापों से (अर्थात् सावद्य कर्मों से) दूर एवं कामभोगों में अनासक्त रह कर एकाकी विचरण करना श्रेष्ठ है / यद्यपि सामान्यतया एकाकी विहार पागम में निषिद्ध है, किन्तु तथाविध गोतार्थ एवं ज्ञानादिगुणयुक्त साधु के लिए यहाँ उसका विधान किया गया है / यहाँ तक दुःखमुक्ति के हेतुभूत ज्ञानादि की प्राप्ति के उपाय के सम्बन्ध में कहा गया है / अब दुःख की पम्परागत उत्पत्ति के विषय में कहते हैं। दुःख को परम्परागत उत्पत्ति 6. जहा य अण्डप्पभवा बलागा अण्डं बलागप्पभवं जहा य / एमेव मोहाययणं खु तण्हा मोहं च तण्हाययणं वयन्ति / / [6] जिस प्रकार बलाका (बगुली) अण्डे से उत्पन्न होती है, और अण्डा बलाका से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार मोह का आयतन (जन्मस्थान) तृष्णा है, तथैव तृष्णा का जन्मस्थान मोह है। 7. रागो य दासो वि य कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति / __ कम्मं च जाई-मरणस्स मूलं दुक्खं च जाई-मरणं वयन्ति / [7] कर्म (-बन्ध) के बीज राग और द्वेष हैं / कर्म उत्पन्न होता है-मोह से / वह कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही (वास्तव में) दुःख हैं। 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 623 (ख) अभिधानराजेन्द्रकोष भा. 5, पृ. 483 2. (क) ववत्ति, पत्र 623 (ख) अ. रा. कोष भा. 5, पृ. 483, (ग) तुलना करिये --दशवकालिक-चूलिका 2010 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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