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________________ बत्तीसवाँ अध्ययन : प्रमावस्थान] [573 [3] गुरुजनों और वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी जनों के सम्पर्क से दूर रहना, स्वाध्याय करना, एकान्त-सेवन, सूत्र और अर्थ का सम्यक चिन्तन करना और धैर्य रखना, यह उसका (ज्ञानादिप्राप्ति का) मार्ग (उपाय) है। विवेचन--ज्ञानादि को प्राप्ति-दूसरी गाथा में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की प्राप्ति को मोक्षसुखप्राप्ति का हेतु बताया गया है, क्योंकि सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से ज्ञान विशद एवं निर्मल होगा। उधर मति अज्ञानादि तथा मिथ्याश्रुत श्रवण, मिथ्यादृष्टिसंग के परित्याग आदि से एवं अज्ञान और मोह के परिहार से सम्यग्दर्शन प्रकट होगा। तीसरी ओर रागद्वेष तथा उसके परिवाररूप चारित्रमोहनीय का क्षय होने से सम्यक् चारित्र प्राप्त किया जाएगा, तो अवश्य ही एकान्तसुखरूप मोक्ष की प्राप्ति होगी।' ज्ञानादि की प्राप्ति : कैसे एवं किनसे ?-तीसरी गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि ज्ञानदर्शन-चारित्र की प्राप्ति का उपाय गुरुवृद्धसेवा प्रादि है / गुरु-विद्धसेवा विशेषार्थ-यहाँ गुरु का अर्थ है--शास्त्र के यथार्थ प्रतिपादक और वृद्ध का अर्थ है-तोनों प्रकार के स्थविर / श्रुतस्थविर, पर्याय (बोसवर्ष की दीक्षापर्याय) से स्थविर और वयःस्थविर, यो तीन प्रकार के वृद्ध हैं। गुरुवृद्धसेवा से प्राशय है- गुरुकुल-सेवा / क्योंकि गुरु और स्थविरों की सेवा में रहने से साधक ज्ञान की प्राप्ति के साथ-साथ दर्शन और चारित्र में भी स्थिर होता है। अज्ञानीजन-सम्पर्क से दूर रहे-यह इसलिए बताया है कि अज्ञानी जनों के सम्पर्क से सम्यग्ज्ञानादि तीनों ही विनष्ट हो जाते हैं, इसलिए यह महादोष का कारण है। धति : क्यों आवश्यक ? –धैर्य के विना चारित्रपालन, सम्यग्दर्शन एवं परीषहसहन आदि नहीं हो सकता / तथा धृति का अर्थ चित्तसमाधि भी है, उसके बिना ज्ञानादि की प्राप्ति नहीं हो सकती। ज्ञानादिप्राप्तिरूप समाधि के लिए कर्तव्य 4. आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं सहायमिच्छे निउणस्थबुद्धि / निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्गं समाहिकामे समणे तवस्सो॥ [4] समाधि की आकांक्षा रखनेवाला तपस्वी श्रमण परिमित और एषणीय (निर्दोष) पाहार की इच्छा करे, तत्त्वार्थों को जानने में निपुण बुद्धिवाले सहायक (साथी) को खोजे तथा (स्त्री-पशु-नपुंसक से) विविक्त (रहित) एकान्त स्थान (में रहने) की इच्छा करे / 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 622 : ततश्चायमर्थः–सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रः एकान्तसौख्यं मोक्षं समुपैति / 2. (क) गुरवो यथावच्छास्त्राभिधायकाः, वृद्धाश्च श्रुतपर्यायादिवृद्धाः / तेषां सेवा-पर्युपासना / इयं च गुरुकूलवासोपलक्षणं, तत्र च सुप्राप्यान्येव ज्ञानादीनि / उक्तं च-'णाणस्स होइ भागी, थिरयरओ सणे चरित्तय।' -बृहद्वत्ति, पत्र 623 3. 'तत्मंगस्याल्पीयसोऽपि महादोषनिबन्धनत्वेनाभिहितत्वात / ' --वही, पत्र 622 4. चित्तम्बास्थ्यं विना ज्ञानादिलाभो न, इत्याह-धृतिश्च-चित्तस्वास्थ्य मनुद्विग्नत्वमित्यर्थः / -वही, पत्र 622 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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