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________________ 570 [उत्तराध्ययनसून (12) बड़े साधु को जिसके साथ वार्तालाप करना हो, उससे पहले ही उसके साथ वार्तालाप कर लेना, (13) बड़े साधु द्वारा पूछने पर कि कौन जागता है, कौन सो रहा है ?, जागते हुए भी उत्तर न देना, (14) भिक्षा लाकर पहले छोटे साधु से उक्त भिक्षा के सम्बन्ध में पालोचना करना, फिर बड़े साधु के पास पालोचना करना, (15) लाई हुई भिक्षा, पहले छोटे साधु को दिखाना, तत्पश्चात् बड़े साधु को दिखाना, (16) लाई हुई भिक्षा के आहार के लिए पहले छोटे साधु को निमंत्रित करना, फिर बड़े साधु को, (17) भिक्षाप्राप्त आहार में से बड़े साधु को पूछे बिना पहले प्रचुर आहार अपने प्रिय साधुओं को दे देना, (18) बड़े साधुओं के साथ भोजन करते हुए सरस आहार करने की उतावल करना, (16) बड़े साधु द्वारा बुलाये जाने पर सुनी-अनसुनी कर देना, (20) बड़े साधु बुलाएँ, तब अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही उत्तर देना, (21) बड़े साधु को अनादरपूर्वक 'रे तू' करके बुलाना, (22) बड़े साधु को अनादरभाव से "क्या कह रहे हो ?' इस प्रकार कहना। (23) बड़े साधु को रूखे शब्द से आमंत्रित करना या उनके सामने जोर-जोर से बोलना, (24) बड़े साधु को उसी का कोई शब्द पकड़ कर अवज्ञा करना, (25) बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो उस समय बीच में बोल उठना कि 'यह ऐसे नहीं है, ऐसे है।" (26) बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, उस समय यह कहना कि आप भूल रहे हैं ! (27) बड़ा साधु व्याख्यान दे रहा हो, उस समय अन्यमनस्क या गुमसुम रहना, (28) बड़ा साधु व्याख्यान दे रहा हो, उस समय बीच में ही परिषद् को भंग कर देना / (26) बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, उस समय कथा का विच्छेद करना / (30) बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, तब बीच में ही स्वयं व्याख्यान देने का प्रयत्न करना। (31) बड़े साधु के उपकरणों को पैर लगने पर विनयपूर्वक क्षमायाचना न करना, (32) बड़े साधु के बिछौने पर खड़े रहना, वैठना या सोना। (33) बड़े साधू से ऊँचे या बराबर के ग्रासन पर खड़े रहना, बैठना या सोना।' इन 33 प्रकार की प्राशातनाओं से सदैव बचना और गुरुजनों के प्रति विनयभक्ति बहुमान करना साधु के लिए आवश्यक है / पूर्वोक्त तेतीस स्थानों के आचरण की फलश्रुति 21. इइ एएसु ठाणेसु जे भिक्खू जयई सया। खिप्पं से सव्वसंसारा विप्पमुच्चइ पण्डियो।। --ति बेमि / [21] इस प्रकार जो पण्डित (विवेकवान्) भिक्षु इन (तेतीस) स्थानों में सतत उपयोग रखता है; वह शीघ्र ही समग्र संसार से विमुक्त हो जाता है / -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--सव्वसंसारा : आशय-जन्ममरणरूप समग्र संसार से अर्थात्-चारों गतियों और 84 लक्ष योनियों में परिभ्रमणरूप संसार से / ॥चरणविधि : इकतीसवाँ अध्ययन समाप्त / 1. (क) अावश्यकसूत्र, चतुर्थ अावश्यक (ख) दशाश्रुतस्कन्ध, दशा 3 (ग) समवायांग, समवाय 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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