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________________ प्रमादस्थान : बत्तीसवाँ अध्ययन अध्ययनसार * प्रस्तुत अध्ययन का नाम प्रमादस्थान (पमायदाणं) है। इसमें प्रमाद के स्थलों का विवरण प्रस्तुत करके उनसे दूर रहने का निर्देश है / * मोक्ष की यात्रा में प्रमाद सबसे बड़ा विघ्न है / वह एक प्रकार से साधना को समाप्त कर देने वाला है / अत: प्रस्तुत अध्ययन में प्रमाद के सहायकों-राग, द्वेष, कषाय, विषयासक्ति आदि से दूर रहने का स्थान-स्थान पर संकेत किया गया है। * प्रमाद के मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा, ये पांच प्रकार हैं किन्तु कुछ अागमों में प्रमाद के 8 प्रकार भी बताए हैं- अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, स्मृतिभ्रंश, धर्म के प्रति अनादर और मन-वचन-काया का दुष्प्रणिधान / प्रस्तुत अध्ययन में 8 प्रकार के प्रमाद से सम्बन्धित विषयों का प्रायः उल्लेख है / * दुःखों के मूल अज्ञान, मोह, रागद्वेष, आसक्ति आदि हैं, इनसे व्यक्ति दूर रहे तो ज्ञान का प्रकाश होकर अज्ञान, रागद्वेष मोहादि का क्षय हो जाने पर एकान्त आत्मसुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। * मोक्षप्राप्ति के उपायों में सर्वप्रथम सम्यग्ज्ञान का प्रकाश होना आवश्यक है, उसके लिए तीसरी गाथा में गुरु-वृद्धसेवा, अज्ञ-जनसम्पर्क से दूर रहना, स्वाध्याय, एकान्तनिवास, सूत्रार्थचिन्तन, धृति आदि बतलाए हैं। * तत्पश्चात चारित्रपालन में जागति की दष्टि से परिमित एषणीय आहार, निपुण तत्त्वज्ञ साधक का सहयोग, विविक्त स्थान का सेवन प्रतिपादित किया गया है / तत्पश्चात् एकान्तवास, अल्पभोजन, विषयों में अनासक्ति, दृष्टिसंयम, मन-वचन-काय का संयम, चिन्तन को पवित्रता आदि साधन चारित्रपालन में जागृति के लिए बताए हैं। * तत्पश्चात् राग, द्वेष, मोह, तृष्णा, लोभ आदि प्रमाद की शृंखलाओं को सुदृढ़ करने वाले विचारों से दूर रहने का संकेत किया है / * तदनन्तर गा. 10 से मा. 100 तक पांचों इन्द्रियों तथा मन के विषयों में राग और द्वेष रखने से उनके उत्पादन, संरक्षण और व्यापरण से क्या-क्या दोष और दुःख उत्पन्न होते हैं ? इन पर विशद रूप से प्रकाश डाला गया है / * इसके पश्चात् कामभोगों की आसक्ति से क्रोध, मान, माया, लोभ, रति, अरति, हास्य, भय, शोक, पुरुषवेदादि विविध विचारों से ग्रस्त हो जाता है। वीतरागता और समता में ये वृत्तियाँ बाधक हैं / साधक इन विचारों से ग्रस्त होकर साधना की सम्पत्ति को चौपट कर देता है। * अन्त में बताया है—इनसे विरक्त होकर रागद्वेषविजयी साधक वीतराग बन कर चार घातिकर्मों का क्षय करके मिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सर्वदुःखों से रहित हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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