________________ इकतीसवां अध्ययन : चरणविधि] [569 मोह त्याग कर गुप्त तप आदि करना), (8) प्रलोभता. (8) तितिक्षा, (10) आर्जव, (11) शुचि (सत्य और संयम, की पवित्रता), (12) सम्यक्त्वशुद्धि, (13) समाधि-(चित्तप्रसन्नता), (14) आचारोपगत (मायारहित आचारपालन), (15) विनय, (16) धैर्य, (17) संवेग (मोक्षाभिलाषा, या सांसारिक भोगों से भीति), (18) प्रणिधि (मायाशल्य से रहित होना), (16) सुविधि (सदनुष्ठान), (20) संवर (पापाश्रवनिषेध), (21) दोषशुद्धि, (22) सर्वकामभोगविरक्ति, (23) मूलगुणों का शुद्ध पालन, (24) उत्तरगुणों का शुद्ध पालन, (25) व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) करना, (26) अप्रमाद (प्रमाद न करना), (27) प्रतिक्षण संयमयात्रा में सावधानी, (28) शुभध्यान (26) मारणान्तिक वेदना होने पर धीरता, (अधीर न होना), (30) संगपरित्याग, (31) प्रायश्चित्त ग्रहण करना, और (32) अन्तिम समय संलेखना करके मारणान्तिक अाराधना करना। __ प्राचार्य जिनदास दूसरे प्रकार से बत्तीस योगसंग्रह बताते हैं-धर्मध्यान के 16 भेद तथा शुक्लध्यान के 16 भेद, यों दोनों मिल कर 32 भेद होते हैं। मन, वचन, काया के व्यापार को योग कहते हैं। वह दो प्रकार का है--शुभ और अशुभ / अशुभ योगों से निवृत्ति और शुभ योगों में प्रवृत्ति ही संयम है। यहाँ मुख्यतया शुभ (प्रशस्त) योगों का संग्रह ही विवक्षित है। फिर भी साधु को अप्रशस्त योगों से निवृत्ति भी करना चाहिए / तेतीस आशातनाएँ-शातना का अर्थ है खण्डन / गुरुदेव आदि पूज्य पुरुषों की अवहेलनाअवमानना, निन्दा ग्रादि करने से सम्यग्दर्शनादि गुणों की शातना-खण्डना होती ही है। आशातनाएँ 33 हैं--(१) अरिहन्तों की प्राशातना, (2) सिद्धों की पाशातना, (3) प्राचार्यों की आशातना, (4) उपाध्यायों की आशातना, (5) साधुनों की पाशातना, (6) साध्वियों की अाशातना, (7) थावकों की आशातना, (8) श्राविकाओं की प्राशातना, (6) देवों की अाशातना, (10) देवियों की पाशातना, (11) इहलोक को पाशातना, (12) परलोक को पाशातना, (13) सर्वज्ञप्रणीत धर्म को अाशातना, (14) देव-मनुष्य-असुरसहित समग्र लोक की आशातना, (15) काल की प्राशातना, (16) श्रुत की अाशातना, (17) श्रुतदेवता को अाशातना, (18) सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्व की आशातना, (16) वचनाचार्य की आशातना, (20) व्याविद्ध-(वर्णविपर्यास करना), (21) व्यत्यामंडित. (उच्चार्यमाण पाठ में दूसरे पाठों का मिश्रण करना). (22) हीनाक्षर, (23) प्रत्यक्षर, (24) पदहीन, (25) विनयहीन, (26) योगहीन, (27) घोषहीन, (28) सुष्ठुदत्त, (योग्यता से अधिक ज्ञान देना), (26) दुष्ठुप्रतीक्षित (ज्ञान को सम्यक् भाव से ग्रहण न करना), (30) अकाल में स्वाध्याय करना, (31) स्वाध्यायकाल में स्वाध्याय न करना, (32) अस्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय करना और (33) स्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय न करना / अथवा पाशातना का अर्थ है -अविनय, अशिष्टता या अभद्रव्यवहार / इस दृष्टि से दैनन्दिन व्यवहार में संभावित पाशातना के भी 33 प्रकार हैं--(१) बड़े साधु से आगे-आगे चलना, (2) बड़े साधु के बराबर (समश्रेणि) में चलना, (3) बड़े साधु से सटकर चलना, (3) बड़े साधु के आगे खड़ा रहना, समश्रण में खड़ा रहना, (6) बड़े साधु से सटकर खड़ा रहना, (7) बड़े साधु के आगे बैठना, (8) समणि में बैठना, (6) सटकर बैठना। (10) बड़े साधु से पहले (-जलपात्र एक ही हो तो) शुचि (आचमन) लेना, (11) स्थान में आकर बड़े साधु से पहले गमनागमन की पालोचना करना, 2. समवायांग, समवाय 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org