________________ 568] [उत्तराध्ययनसूत्र की ऋद्धि, द्युति, बल, वीर्य प्रादि को मजाक उड़ाना और (30) देवदर्शन न होने पर भी मुझे देवदर्शन होता है, ऐसा झूठमूठ कहना / __ महामोहनीय कर्मबन्ध दुरध्यवसाय की तीव्रता एवं क्रूरता के कारण होता है, इसलिए इसके कारणों को कोई सीमा नहीं बांधो जा सकतो / तथापि शास्त्रकारों ने तीस मुख्य कारण महामोहनीयकर्मबन्ध के बताए हैं / साधु को इनसे सदैव अपनी आत्मा को बचाना चाहिए।' .. इकतीसवाँ, बत्तीसवाँ और तेतीसवाँ बोल 20. सिद्धाइगुणजोगेसु तेत्तीसासायणासु य / जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // [20] सिद्धों के 31 अतिशायी गुणों में, (बत्तीस) योगसंग्रहों में और 33 आशातनाओं में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता। विवेचन--सिद्धों के इकतीस गुण -पाठ कर्मों में से ज्ञानावरणीय के 5, दर्शनावरणीय के 6, वेदनीय के 2, मोहनीय के दो (दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय), आयु के 4, नामकर्म के दो, (शुभनाम-अशुभनाम) गोत्रकर्म के दो (उच्चगोत्र, नीचगोत्र), और अन्तरायकर्म के 5 (दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय) इस प्रकार पाठों कर्मों के कुल भेद 5+6+2+2+4+2+2+5:31 होते हैं। इन्हीं 31 कर्मों का सर्वथा क्षय करके सिद्ध भगवान् 31 गुणों से युक्त बनते हैं / सिद्धों के गुणों का एक प्रकार और भी है जो प्राचारांग में बताया गया है-५ संस्थान, 5 वर्ण, 2 गन्ध, 5 रस, 8 स्पर्श, 3 वेद, शरीर, आसक्ति और पुनर्जन्म, इन 31 दोषों के क्षय से भी 31 गुण होते हैं / 'सिद्धाइगुण' का अर्थ होता है—सिद्धों के अतिगुण (उत्कृष्ट या असाधारण गुण) / साधु को सिद्ध-गुणों को प्राप्त करने की भावना करनी चाहिए।' बत्तीस योगसंग्रह-(१) आलोचना (गुरुजनसमक्ष स्व-दोष निवेदन), (2) अप्रकटीकरण (किसी के दोषों की आलोचना सुन कर औरों के सामने न कहना), (3) संकट में धर्मदृढता, (4) अनिश्रित या प्रासक्तिरहित तपोपधान. (5) ग्रहणशिक्षा और आसेवनाशिक्षा का अभ्यास, (6) निष्प्रतिकर्मता (शरीरादि की साजसज्जा, शृगार से रहित), (7) अज्ञातता (पूजा-प्रतिष्ठा का 1. (क) दशाश्रुतस्कन्ध, दशा 9 (ख) समवायांग, समवाय 30 2. (क) सयवायांग, समवाय 31 (ख) से ण दोहे, ण हस्से, ण वट्ट,ण तंसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले। ण किण्हे, ण णीले, ण लोहिए, ण हालिद्द, ण सुक्किले / ण सुहिमगंधे, ण दुब्मिगंधे / ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाए, ण अंबिले, ण महरे, ण कक्खडे, ण मउए, ण गरुए, ण लहुए, ण सीए, ण उण्हे, ण णिद्ध, ण लुक्खे, ण काऊ, ण उण्हे / ण संगे। ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अन्नहा // –पाचारांग 1 / 5 / 6 / 126-134 --बृहद्वृत्ति, पत्र 617 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org